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रूपासितुं शक्यानि तानि तानि रूपाणि तैस्तैर्वेदान्तनिरूप्यन्त इति तावद् रूपात्मकमेव ब्रह्मेत्यर्थः । चोदनाद्य विशेषात् इति । चोद्यते कर्तव्यत्वेन बोध्यतेअनेनेति चोदना विधिवाक्यमिति यावत् । तस्याविशेषादित्यर्थः । यथैकस्मिन्नाग्निष्टोमे शाखाभेदेऽपि चोदना तथैव भवत्यग्निष्टोमेन यजेत" इति तथेहापि सर्वेषु वेदांतेषु ब्रह्मत्वेनोपासना विधियत इति तथा। आदि पदात् साक्षात परम्पराभेदेन मोक्षफलकत्वकथनमप्यूपासनानामविशिष्टमिति प्रयोजन संयोगः संगृह्यते ।
उक्त मतों पर सूत्रकार का विचार प्रस्तुत करते हैं-कहते हैं कि अनेक रूपों के निरूपक वेदांतों का ज्ञान ईश्वरार्थक ही है । ब्रह्म के अनेक रूपों का वर्णन का कारण ये है कि विविध जीवों को सरलता से उपासना करके ब्रह्म प्राप्ति हो सके, जीवों की रुचि के अनुसार ब्रह्म के विविध रूपों का वेदांतों में निरूपण किया गया है, वैसे ब्रह्म तो एक ही है । कर्तव्य रूप से प्रेरित करने वाले विधिवाक्यों की तरह ये वेदांतवाक्य भी हैं, जिनका रूप भी भिन्न है, पर विधिका रूप सभी में एक है “अग्निष्टोमेनयजेत्" इत्यादि । इसी प्रकार समस्त वेदांतों में ब्रह्म के विभिन्न रूप होते हुए भी उपासनायें ब्रह्मत्वभाव से एक हैं । साक्षात् या परम्परा भेद से सभी उपासनायें मोक्षफल की ही वाचक है, इसलिए उनमें कोई बड़ी छोटी नहीं है, इसी बात को सूत्रस्थ आदि शब्द सूचित कर रहा है ।
भेदान्नेति चेदकस्यामपि ।३।३।२।।
ननु द्रव्यदेवता भेदात् यागभेदवदुपास्यानां धर्म भेदे नमिथो भेदादुक्त हेतुत्वसिद्धि भेदान्नेति चेदित्यनेनांशंक्य तत्परिहारमाह सूत्रकार-एकस्यामपीति सूत्रावयवेन । यथैकस्यामपि गृहीत षोडशिकायाः सकाशाद् गुणाधिक्येऽपि नातिरात्रभिन्न यागत्वं, अतिरात्रलक्षण कर्मैवाधिकृत्य तत्तद्ग्रहणाग्रहणयोविधानादेवमिहापि ब्रह्मवाधिकृत्य तत्तद् धर्म वैशिष्ट्या वैशिष्ट्योरुक्तत्वान्न ब्रह्मोपासनभिन्नत्वत्वमुपासनासु । तथा च ब्रह्म धर्मत्वेना दस्य विवक्षितत्वात् त्वदुक्तहेत्वसिद्धिः। एवं सति यथैक स्मिन्नुपास्ये रूपेऽन्यस्माद् रूपादधिकागुणा उच्यन्ते, तत्र तेषामुपसंहार उचित इतिभावः । अत्रायं विशेषोज्ञ यः । उपासना विषयेप्यखिलेष्वविशिष्टं ब्रह्मत्वं ज्ञात्वैतेष्वेकतरं रूपं य उपास्ते । तस्य तत्र सर्वे गुणा उपसंहर्तुमु