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परिच्छेदो निरूपितः "प्राज्ञेनात्मना संपरिष्वक्त "इति च तथा भेद व्यपदेशात्
-''य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्यमयः पुरुषों दृश्यते", य एषोऽक्षिणि पुरुषो दृश्यते" इत्यत्र स्थान द्वयस्थितयोः पुरुषयोः परस्परं धर्मातिदेशमाह । अक्षिस्थितनिरूपकमतिदेशः प्रमाणमिति । धर्म्य देतु “स एवायम्" इति वदेत् । - अतो देशकालवस्तुस्वरूपपरिच्छेदाच्चतुर्विध परिच्छेद रहितमन्यत् किंचिदस्तीति प्रतिपत्तव्यम् इत्येवं प्राप्तम् ।
अब उक्त हेतुओं की बाधकता बतलाते हैं । ये एक देशीय बाधक हैं। सर्व प्रथम फल हेतु पर विचार करते हैं । सेतु के व्यपदेश से स्वरूप निरूपण किया जाता हैं । "दहरउत्तरेभ्य" सूत्र में इस सेतु ब्रह्म की सिद्धि की गई है । “अथ य इहात्मानमनुविद्य ब्रजन्ति" से प्रारम्भ करके "सर्वेषुलोकेषु कामचारो भवति" कह कर काम का उपपादन करके, ज्ञान प्रशंसा के लिए, अज्ञात व्यवधान बतलाकर, ज्ञान के बाद संसार सम्बन्ध का अभाव होता है, उसके निमित्त सेतुत्व का वर्णन किया गया । पाप सागर से पार होने के लिए सेतु का आश्रय कहा गया "जो तरता है, उसके दोष समाप्त हो जाते हैं" इत्यादि संसार और फल के मध्य में सेतु की स्थिति कही गई है, तरना ही फल कहा गया है जिससे ज्ञात होता है कि-फलरूप वस्तु कुछ अन्य है। निधि का अर्थ रूप होने से ये, श्रेष्ठ पुरुषार्थ स्वरूप अवान्तर फल हो सकता है "एतमानन्दमयमात्मानम्' ऐसा उपक्रम करते हुए इसका उदाहरण प्रस्तुत किया गया है ।
उन्मान के व्यपदेश से भी स्वरूपनिरूपण हो सकता है उक्त दहर प्रसंग में ही "जितना यह भूताकाश हैं उतना ही ये हृदयस्थ आकाश है "इत्यादि, साधन युक्ति के प्रश्न के उत्तर में उन्मान से परिच्छेद का निरूपण किया गया है दृष्टान्त और दान्ति भाव, ज्ञान का साधन है। इसलिए जगत में व्याप्त आकाश का ज्ञान भी साधन है । ब्रह्म चार पाद वाला है, उसके भूतादिपाद हैं, ऐसा जानना चाहिए।
सम्बन्ध व्यपदेश से भी निरूपण होता है । उक्त दहर वाक्य में ही प्रमेय निरू पण के प्रस्ताव में 'उभावस्मिन्' इत्यादि से आधार आधेय सम्बन्ध का निरूपण किया गया है । तथा "प्राज्ञेनात्मना संपरिप्वक्त" इत्यादि से वस्तु परिच्छेद का भी निरूपण किया गया है।