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दुकृष्ट धर्मवत्वंवाच्यम् । तच्चाशक्यम्, प्रमाणाभावात् । साम्येपि तथा विशेषाभावोऽद्वत श्रृ ति विरोधश्च तस्मादितः परस्यानुपपन्नत्वादुक्त रूपमेव परमकाष्ठापन्न वस्तु इति उपपद्यत इत्यर्थः ।
सत्य ज्ञान आदि धर्म विशेषों से युक्त ब्रह्म से विशेष कोई उत्तम है, ऐसा मानकर उत्कृष्ट धर्मवाच्यता का समर्थन करना शक्य नहीं है, उसका कोई प्रमाण भी नहीं मिलता है । साभ्य की दृष्टि से भी, वैसी विशिष्ट वस्तु का कोई अस्तित्व नहीं है, यदि किसी विशिष्ट वस्तु का अस्तित्व स्वीकारेंगे तो अद्वत श्रुति के विरुद्ध होगा। इससे भिन्न कोई भी वस्तु श्रेष्ठ नहीं है, ब्रह्म का उक्त रूप ही, परमकाष्ठापन्न वस्तु है, यही निश्चित होता है।
तथाऽन्य प्रतिषेधात् ।३।२॥३६॥
यथा सेत्वादयःः श्रुत्युक्तास्तथैव, “न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यत" इति श्रु त्यैव ततोऽधिकस्य प्रतिषेधात् त्वयाऽप्यस्मदुक्त एव मागोऽनुसतंव्य इत्यर्थः । अवतार काले पूर्व स्वशक्त्याविर्भावमकृत्वा पश्चात् तदाविर्भावे कुतोलोकानां पूर्वावस्थातो भगवत्येवाधिक्यमिव प्रतीतं भवति इत्यभिप्रायेण अन्यपदोपादानम् ।
जैसे कि सेतु आदि धर्म श्रुति सम्मत हैं, वैसे ही "उसके समान या अधिक कोई नहीं दीखता" इत्यादि श्रुति भी किसी अन्य अधिक वस्तु का प्रतिषेध करती है । अतः तुम्हें भी हमारे कहे मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। अवतार के समय, पहिले अपनी शक्ति को प्रकट न करके, बाद में उसके प्रकट करने पर, लोक को प्रतीत होता है कि ये निश्चित ही भगवान हैं, क्योंकि इनमें कुछ प्रकर्ष हुआ है, इस अभिप्राय से ही श्रुति में अन्य पद का उपादान किया गया है।
अनेन सर्वगतत्वमायामशब्दादिभ्यः ।३।२।३७।।
प्रकरणमुपसंहरन फलितमर्थमाह । अनेन सेत्वादिव्यपदेशानां मुख्यार्थकत्वनिराकरणेन व्यापकत्त्वं ब्रह्मणः सिद्धमित्यर्थ इति केचित् । तन्न, जन्माद्यस्य यत इत्यादिना सर्वदेशगतकार्यकर्तुत्वमुक्तमिति तेनैव व्यापकत्वस्य सिद्धत्वात् न चाविरोध साधन प्रकरणत्वात् पूर्वसिद्धं सर्वगतत्वमनेनोक्त ग्रन्थेनकृत्वा, सेत्वादिवाक्यैः सर्वमविरुद्ध मित्यर्थमितिवाच्यम् अग्रिमपद वैयर्थ्यांपत्तेरिति चेत् । अत्रैवंज्ञयम्, नोक्तकतं त्वेन व्यापकत्वमेकान्ततो ब्रह्मणिरोद्ध शक्नोति । योग्यसिद्ध