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अकरणत्वाच्च न दोषस्तथाहि दर्शयति ।२।४।११॥
ननु प्राणस्य जीवोपकरणत्वेन तदुपकारक व्यापार व त्वमपेक्ष्यते तत्र कादशैव वृत्तयस्वतंत्रान्तरेऽपि सिद्धाः । “एकादशामी मनसोऽपि वृत्तय आकूतयः पंचधियोऽभि मानः, मात्राणि कर्माणि पुरंचतासां वदंति चैकादशवीर भूमीः' इति । तथा कश्चित प्राणस्य व्यापारोऽस्तीति चेत् । नैष दोषः, कुतः ? अकरणत्वात्, करणस्यैव हि व्यापारोऽपेक्षितअन्यस्यकार्य मात्रमंपेक्षितम् तत्राह तथाहि कार्यवत्त्वं पुक्त तच्छ तिरेव दर्शयति, "तस्मिन्नुत्क्रामत्यथेतर" इत्यादि श्रुतिभिः 'प्राणनिमित्तव शरीरस्थितिः' इति । तस्माद्व्यापाराभावेऽपि स्वरूपस्थितिमात्रेण तस्योपकारित्वम् ।
प्राण जीव का उपकरण है इसलिए उसमें जीव के उपकार के लिए कुछ चेष्टा अवश्य होनी चाहिए, उसकी जो एकादशवृत्तियाँ हैं वह स्वतंत्र रूप उपकारक है जैसा कि "एकादशामी मनसोऽपि" इत्यादि से निश्चित होता है। प्राण की कौन सी चेष्टा है ? ऐसा वितर्क करना ठीक नहीं क्योंकि प्राण कोई कारण नहीं है, चेष्टा तो करण की ही होती हैं, अन्य तो कार्य मात्र की अपेक्षा करते हैं, उसके लिए तो कार्यवान् होना ही उचित है वैसा ही उक्त श्रुति से भी निश्चित होता है। "तस्मिन्नुत्क्रामत्यथेतर" इत्यादि श्रुति से भी सिद्ध होता है कि शरीर की स्थिति प्राण निमित्तक ही है। इसलिए चेष्टा के अभाव में भी स्वरूपस्थिति मात्र से ही उसकी उपकारिता निश्चित होती है। पंचवृत्त मनोवद् व्यपदिश्यते ।२।४।१२॥
व्यापारव्यतिरेकेणोपकारित्वमसमंजस मिति चेत् तत्राह-पंचवृत्तेः "अहमेवंतत् पंचधात्मानं विभज्यतद्बाणमवष्टभ्य विधारयामि" इति । यथा मनसो द्वारभेदेनवकादशवृत्तयः स्वरूपत एव । एवमेव प्राणस्यापि पंचधात्मानं विभज्यकार्यकारणं ब्यपदिश्यते ।
चेष्टा के बिना उपकारिता संभव न हो, सो भी नहीं है क्यों प्राण पांच वृत्तियों वाला है जैसा कि "मैं ही स्वयं को पांच रूपों में विभक्त करके इस शरीर में स्थित होकर धारण करता हूँ" इत्यादि श्रुति से ज्ञान होता है । जैसे कि- मन की ही एकादश वृत्तियाँ उसकी ही हैं, इन्द्रियाँ तो उसके व्यवहार के द्वार मात्र हैं इसी प्रकार प्राण भी स्वयं को पांच रूपों में, कार्यकारण भाव से स्थित करता है। .
अणुश्च ।२।४।१३॥