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दिया गया फिर अविरोध का निर्णय कैसे करते हैं ? उसका उत्तर सूत्रकार देते हैं |
प्रकृतैतावत्वं हि प्रतिषेधति । प्रकृते यदेतावत् परिदृश्यमाना यावन्तः पदार्था लौकिकास्तेषामेव धर्मान् निषेधति । प्रतीतस्यैव हि निषेधात् । अतोजगद्वैलक्षयमेवास्थूलादि वाक्यैः प्रतिपाद्यते नतुवेदोक्ता ब्रह्म धर्मा निषेद्धु ं शक्यते । कुत एतदवगम्यते ?
उक्त गागि प्रश्न के प्रसंग में लौकिक दीखने वाले जितने भी पदार्थ हैं, उन्हीं के धर्मों का निषेष किया गया है | प्रतीत का ही निषेध हो सकता है। अस्थूलादि वाक्य में, जगद् से विलक्षण रूप का प्रतिपादन किया गया है, वेदोक्त ब्रह्म धर्मों का निषेध करना तो संभव ही नहीं हैं । यदि पूछें कि ये कैसे
IT ? उस पर सूत्रकार कहते हैं - तंत्राह " ततो ब्रवीति च भूयः" अर्थात् उसी art में पहले तो निषेध किया गया है किन्तु बाद में उसी का समाधान भी किया गया है जैसे कि " जिसे वाणीमन सहित पा नहीं सको लोट आई, आनन्द ब्रह्म को जानकर विद्वान किसी से नहीं डरता ' इत्यादि, इसी प्रकार अस्थूल वाक्य में भी" हे गागि ! इसी के प्रशासन में इसे जानकार - आकाश इसी में ओत प्रोत है" इत्यादि । एक ही वाक्य में, उपाख्यान भेदों का संग्रह किया गया है । सभी जगह लौकिक धर्मों का प्रतिषेध और अलौकिक धर्मो का समर्थन है, इसी युक्ति से निर्णय करना चाहिए, युक्ति से भी अविरोध सिद्ध हो सकती है ।
तदव्यक्तमाह हि | ३||२३|
शब्दंबल विचारेण विरोधं परिहृत्यार्थबल विचारेणाविरोध प्रतिपादनायाधिकरणमारभते । सर्वाणि विरुद्ध वाक्यान्युदाहृत्य चिन्त्यन्ते ।" न चक्षुषागृह्य ते, “कश्चिद् धीरः प्रत्यगात्मानमैक्षत्,” "नापिवाचा,” सर्वे वेदायद्पदमामनन्ति अप्राप्य मनसा सह," "मनसैवै तदाप्तव्यम्,” अस्पर्शमगंधमरसम् "सर्वरूपः सर्वगंधः सर्व रसः " " अपाणिपाद" इत्यादि । "विश्वतश्चक्षुः " इत्यादि । “निगु ंणश्च” “यः सर्वज्ञः सर्वशक्तिः " " इत्यादि विरुद्ध वाक्यानि । न हि वस्तु द्विरूपं संभवति । वाक्यद्वयमपि प्रमाणम् । तथा सति प्रमाणान्तरानुरोधेनैकस्य स्वार्थे प्रामाण्यमन्यस्योपचरितार्थत्वमिति युक्तम् । तत्र प्रत्यक्षानुरोधेन निर्णयो विचार्यते । तत्र पूर्वपक्षमाह - तदव्यक्तम् । तद् ब्रह्म अव्यक्तमेव भवितुमर्हति । कुत: ? आह हि श्रुति प्रत्यक्षाभ्याम् । " नेतिनेत्यात्मा अग्राह्यो" " न हि गृह्यत्" इति । न हि गृह्यत इति अनुभब साक्षिकं प्रमाणं