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( ३५७ ) भ्यां वा ब्रह्म साकारमनन्तगुणपरिपूर्ण चेति नाव्यक्तमेवैति निश्चयः । अतो लौकिका लौकिक प्रत्यक्ष विषयत्वादुभयवाक्यार्थ रूपमपि ब्रह्म ।।
सूत्रस्थ अपिशब्द पूर्वपक्ष की गर्हणा कर रहा है। उससे द्योतित होता है कि -पूर्वपक्षवादी पूर्णरूप से व्यामोहित हैं, क्योंकि-संराधना अर्थात् विधिवत सेवा से भगवान के प्रसन्न हो जाने पर उनको देखा जा सकता है। श्रद्धा भक्ति और ध्यान योग से प्राप्त करो' जिसे प्रभु वरण करते हैं, उन्हीं से वे प्राप्त हैं, 'अर्जुन ! मेरे इस रूप को अनन्य भक्ति से ही देखा जा सकता हैं, इत्यादि से निश्चित होता है कि वह सगुण निगुण रूप होते हुए भी दृश्य हैं। जैसा कि 'ध्यान करने वाला उस निराकर को देखता है 'मैं आपको सब जगह अनेक हाथ, पेट, मुख और नेत्रों वाले अनंत रूपों को देख रहा हूँ" इत्यादि वाक्यों से स्पष्ट है । संराधक के स्वानुभव और ध्रुव आदि के उदाहरण से उक्त कथन की पुष्टि हो जाती है। प्रत्यक्ष और अनुमान, तथा श्रुति और स्मृति सभी से यही निर्णय होता है कि ब्रह्म, सगुण साकार है, अव्यक्त नहीं है। लौकिक अलौकिक दोनों ही रूपों का प्रत्यक्ष होने से, ब्रह्म का जो रूप उभयविध वाक्यों में कहा गया वह ठीक है ।
प्रकाशादिवच्चाव शेष्यं प्रकाशश्च कर्मण्यभ्यासात् ।३।२।२५॥
पुनः प्रकारान्तरेण पूर्वोक्तमेव स्थिरीकत्त मधिकरणन्तरमाःरभाते । तत्र सूत्रद्वयेन पूर्वपक्षद्वयमाह । ननु प्रत्यक्षानुरोधेनोर्भयविधवाक्य समाधानं नोपपद्यते वक्त शत्क्यैव निर्णय उचितः । न तु श्रु तिप्रत्यक्षाभ्याम् । यथा प्रकाशजलसुवर्णा दीनामनेकविधत्वं नांगीक्रियते । सूर्यचन्द्रमणिप्रकाशादिषूष्णसीतानुभवरूप स्पर्शाः प्रतीयन्ते न हि तेजसि तावन्तः स्पर्शा अंगी क्रियन्ते । जले च हिमतप्त कुण्डादिषु तथा सुवर्णे वर्णभेदाः । न हि सर्वे स्वाभाविकाः। तेजस्त्त्वादि स्वभावहानि प्रसंगात् । तथा ब्रह्मणोऽप्यवैशेष्यमंगीकत्तव्यम् । निविशेष हि ब्रह्मेति सर्व प्रसिद्धिः । चकारादेवं साधका अग्राह्यो न हि गृह्यत इत्येवमादयः । ननूक्त भक्तस्य तथा साक्षात्कारात् तादृश श्रुतेश्च नेकविधत्वमंगीकत्त शक्यत इति । नैष दोषः। प्रकाशश्च कर्मणि तपः प्रणिधानादिकर्मणि भगवतः प्रकाशः। तत्र यथा तेषां कामस्तथा प्रकटीभवति चकारादप्रकाशान्यथा प्रकाशौ । तत्र हेतुः अभ्यासादावृत्तेः यद्येकवारं प्रकट: स्यात् तदातत्तद्रूपत्वमंगीक्रियेतापि । प्रतिभक्त प्रतिकर्म चाविर्भावः । अतः प्रकाशोऽपि कृत्रिम एवं, दीपप्रकाशवत् । अन्यथा सर्वदा स्यात् । तस्मान्न भक्त प्रत्यक्षेण निर्णयः ।