________________
( ३५८ ) पुनः प्रकारान्तर से पूर्णोक्त बात की पुष्टि करने के लिये दूसरा नया अधिकरण प्रारम्भ करते हैं । उपयुक्त दो सूत्रों से दो पूर्व पक्षों को दिखलाया गया। अब संशय करते हैं कि-प्रत्यक्ष प्रमाण के आधार पर उभयविध वाक्यों का समाधान नहीं हो सकता । वाक्य शक्ति से ही निर्णय करना उचित है । जैसे कि-प्रकाश, जल, सुवर्ण आदि के प्रकार नहीं माने जा सकते । सूर्य कान्तमणि चन्द्रकान्तमणि, प्रकाशादि में जो उष्ण, शोत आदि स्पर्श की अनुभूति होती है, तेज में वैसे स्पर्श की अनुभूति नहीं होती। जल में हिम तप्तकुण्डादि में स्पर्शानुभूति होती है, तथा सुवर्ण में अनेक वर्ण होते हैं । ये सब स्वाभाविक नहीं है । वैसे ही ब्रह्म का अवैशेष्य मानना चाहिये, निविशेप ब्रह्म को ही सर्वत्र प्रसिद्धि है ।' अग्राह्यो न गृह्यत' इत्यादि वाक्य उक्त तथ्य को ही पुष्टि करते हैं जो यह कहा कि-भक्त आराधना द्वारा प्रभु का साक्षात्कार करता है ऐसा श्रुति का प्रमाण है, इसलिए एक मात्र निविशेष स्वरूप को ही नहीं मानना चाहिए । सो तो बात यह है कि-तप प्रणिधान आदि कर्म में भगवान का प्रकाश होता है, जिस भक्त की जैसी कामना होतो है,, प्रभु उसके समक्ष वैसे ही रूप से प्रकाशित होते हैं । कभी-कभी भक्त को प्रकाश दीखता भी नहीं कभी दूसरे प्रकार का प्रकाश दीखता है, ये तो अभ्यास के ऊपर निर्भर करता है । जिसका जैसा अभ्यास होगा वैसी अनुभूति होगी। जिसके सामने जो रूप एक बार प्रका शित हुआ भक्त उसी रूप को स्वीकार कर पुन: पुनः उसी रूप को प्राप्त करने के लिए अभ्यास करता है। हर भक्त की अपनी. अलग-अलग प्रक्रिया होती है उसी के अनुरूप प्रकाश का आविर्भाव भी होता है। इससे निश्चित हुआ कि ये प्रकाश कृत्रिम होता है, जैसा कि-दीप का प्रकाश । यदि ऐसा नहीं है तो, वो प्रकाश सदा रहना चाहिए । इसलिये भक्त के प्रत्यक्ष से परमात्मा के स्वरूप का निर्णय करना उचित नहीं है।
अतोऽनन्तेन तथाहि लिंगम् ।२।२।२६॥
फलितमाह-अतः, अभ्यासादनन्त न अनत रूपेण अविर्भावः । न ह्येकवस्तु प्रतिक्षणमन्यादृशं भवति निमित्त भेद व्यतिरेकेण । क्वचिद् भक्त कामश्च निमित्तत्वेन प्रतीयते । न हि निमित्त भेदेन जायमानं वस्तु भवति । किन्तु तथा सति लिंगं विग्रह एव भवति । युक्तश्चायमर्थम । 'यद्यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति तत्तद् वपुः प्रणयसे सदनुग्रहाय 'इति अतः श्रु त्या प्रत्यक्षेण वा तथा निर्णयः कत्तु शक्यः । तस्मात् सर्वागोचरमेव ब्रह्मत्येवं प्राप्तम् ।