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श्रुतिराह । न हि केनचिदपि चक्षुषा मनसा वा ब्रह्म दृष्टमस्ति । सर्वरूपत्वे हि सर्वेरेव द्रष्टुं शक्येत । तस्मात् सर्व धर्मवत्वेन प्रतिपादकान्युपचरितार्थान्येव । अनुभवविरोधादित्येवं प्राप्तम् ।
शब्द बल के विचार से विरोध का परिहार कर अब अर्थ बल के विचार से अविरोध का प्रतिपादन करने के लिए अधिकरण का प्रारम्भ करते हैं । सभी विरुद्ध वाक्यों को प्रस्तुत करते हुए विचार करते हैं जैसे कि "नेत्र से नहीं देख सकते," कोई धीर ही प्रत्यगात्मा को देखता है," "वाणी से नहीं कह सकते," सारे वेद जिस पद को प्राप्त करते है," "मनसहित. न पाकर," "इसे मन से ही जान सकते हैं," "यह अस्पर्श, अगंध और अरस है," वह सर्वरूप, सर्वगंध और सर्वरस है," उसके हाथ पैर नही फिर भी दौड़कर पकड़ता है "इत्यादि," विश्व के नेत्रों से देखने वाला “निगुण भी," जो सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान है, इत्यादि विरुद्ध वाक्य हैं। वस्तु दो रूपों वाली तो हो नहीं सकती। वाक्य दोनों प्रकार के ही प्रामाणिक हैं। इसका निर्णय तो ऐसे ही सकता है कि दोनों में से एक को वास्तविक प्रमाण माना जाये और दूसरे को औपचारिक । प्रत्यक्ष प्रमाण जिसके पक्ष में हो उसी के पक्ष में निर्णय करना चाहिए। इस पर पूर्व पक्ष वाले कहते हैं कि वह ब्रह्म अव्यक्त ही हो सकता है, श्रुति और प्रत्यक्ष दोनों से ही उसकी अब्यक्तता सिद्ध है । “आत्मा ऐसा भी नहीं, ऐसा भी नहीं, वह तो अग्राह्य है" इस वैदिक उक्ति को ही हम प्रत्यक्ष में चरितार्थ पाते है क्योंकि हम परमात्मा को पकड़ नहीं पाते । आज तक किसी ने भी नेत्र या मन से ब्रह्म को देखा नहीं है। यदि वह जगत की तरह सर्वरूप होता तो सबसे देखा जा सकता । इसलिए, परमात्मा का जो सर्वधर्म रूप से प्रतिपादन किया गया है वह औपचारिक है। अनुभव से विरुद्ध होने से ऐमा ही निश्चित होता है। · अपि संराधने प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् ।३।२।२४।।
अपीति पूर्वपक्ष गर्हायाम् । सर्वथा मूर्खः पूर्वपक्षवादी यतः संराधने, सम्यक् सेवायां भगवत्तोषेजाते दृश्यते । 'श्रद्धाभक्ति ध्यानयोगादवेहि' यमेवैष वृणुते तेनलभ्यः 'भत्क्यात्वनन्ययाशक्य अहएवं विधोऽजुन' ज्ञातु द्रष्टुच तत्वेन प्रवेष्टं च परंतप 'इति । द्विविधमपि रूपं दृश्यते । ततस्तु 'तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः 'अनेकबाहूदर वक्त्रनेत्रं पश्यामित्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्' 'इति । संराधकस्य स्वानुभवो ध्र वादीनामुपपादकत्वंच । तस्मात् प्रत्यक्षानुमानाभ्यां, श्रति स्मृति,