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जब लोग शुद्ध अन्न खाते हैं तो उत्तम शुद्ध रस बत कर उत्तम सदाचारी संतान होती है । इसलिए चरण श्रुति उपलक्षण मानना ही ठीक है । वृष्टिभाव, अनुशय युक्त ही होता है, यही निश्चित मत है। सुकृतेदुष्कृते एवेति तुबादरिः ॥३॥१॥११॥ ____ फलांश एवानुशय इति तु स्वमतम् । कर्मफलंच द्वयमेवेश्वरेच्छया नियतम् । कर्म पुन भगवत्स्वरूपमेव ब्रह्मवादे । सोऽपि व्यक्तः फलपर्यन्तं तदादि संयोग इति स्वमतम् । अंत संयोग पक्षमा हैक देशित्व ज्ञापनाय ।सुकृत दुष्कृते एव विहित निषिद्धकर्मणी अनुशय इति बादरिराचार्यो मन्यते । तेन मोक्षपर्यन्तमनुशयोऽनुवत्तिष्यत इति सूत्र फलम् । तुशव्देन निरनुशय पक्ष शंकैव नास्तीत्युक्तम् । एवं द्वितीयाहु तिनिहरिता।
सूत्रकार अपने मतानुसार अनुशय का अर्थ फलांश करते हैं, उनके मत से शुभाशुभ दोनों ही प्रकार के कर्मफल ईश्वरेच्छा से होते है[भगवान ने द्वितीय स्कंध में ब्रह्माजी से स्पष्टतः कहा भी है "द्रव्यं कर्म च कालं च स्वभावी जीव एव च, वाशुदेवात् परोब्रह्मन् न चान्योऽर्थोऽस्तितत्वतः"] वे परमात्मा आदि से लेकर अंत तक फलपर्यन्त अभिव्यक्त होकर विराजते हैं, संपूर्ण फल प्राप्त हो जाने पर तिरोहित हो जाते हैं, यही बादरायण का अभीष्ट मत है। फलपर्यन्त प्रभुसंयोग की बात बादरि भी मानते हैं, ये बात सूत्रकार नाम निर्देश करते हुए कहते हैं। सुकृत और दुष्कृत, शास्त्र सम्मत और शास्त्र विरुद्ध कर्म को ही कहते हैं वे ही अनुशय रूप हैं, ऐसा बादरी आचार्य मानते हैं । अनुशय मोक्षपर्यन्त रहता है, यही सूत्र का कथन है । निरनुशय पक्ष की शंका करनी ही नहीं चाहिए, ऐसा तु शब्द से बतलाते हैं । इस प्रकार द्वितीय आहुति का निर्णय हो गया।
अनिष्टादिकारिणामपि च श्रुतम् ।३।१।१२॥
तुल्यत्वेन च विचारे ऐक्येवा पंचाहुति धूममार्गयोः सोमभावं गतस्य पुनरावृत्यु पसंहारे उपलक्षणेनापि पापाचारवतामुपसंहार दर्शनात् तेषामप्याहुति संबंधो धूममार्गश्च प्राप्नोति । तन्निराकरणार्थ मधिकरणारम्भः ।
पंचाहुति और धूममार्ग दोनों को एक माने या समान, दोनों ही स्थिति में, सोमभाव और पुनरावृत्ति व लाई गई हैं। उपलक्षण मानते हुए भी पापियों की पुनरावृत्ति देखी जाती है, इसलिए उनको भी पंचाहुति संबंध और धूममार्ग