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कुछ आशंका करते हुए परिहार करते हैं । प्रश्न होता है कि जहाँ अनुस्मृति नहीं रहती वहाँ कुछ और हो सकता है। कभी-कभी मूर्छा आदि विशेष अवस्थाओं में समस्त स्मृति के नाश हो जाने से मुग्ध भाव देखा जाता है, जैसे कि मूर्छा विशेष के बाद अतिमुग्ध अमरुक राजा के शरीर में शंकराचार्य के जीव के प्रवेश की बात अति प्रसिद्ध है। जैसे मुग्धावस्था में लौकिक वैदिक व्यवहार होता है वैसे ही सुषुप्ति में भी अन्य जीव का प्रवेश हो सकता है। अनुस्मृति आदि बुद्धि की वृत्तियाँ हैं वो जागृत अवस्था में बढ़ जाया करती हैं । जैसे कि गंगा प्रवाह में पतित जल को गंगा ही कहा जाता है. वैसे ही वह चिदंश है उसमें बुद्धि वृति प्रवाहित होने लगती है। और वही पूर्व कर्म को समाप्त करने वाला भी होता है। इत्यादि शंका करते हुए परिहार करते हैं । कहते हैं मुग्धभाव में अर्द्ध संपत्ति ही रहती है, पूर्ण सपत्ति नहीं रहती । मुग्धव्यक्ति का यज्ञादि में अधिकार नहीं है । मुग्धभाव के पूर्व होने वाले अग्निहोत्र आदि तो जीवनाधिकार से होते हैं । लौकिक व्यवहार भी सामान्यतः होता रहता है । मुग्धावस्था के पूर्व घटित तथ्यों का मुग्धावस्था के बाद भी अस्तित्व रहता है, इसलिए किसी प्रकार का दोष घटित नहीं होता। मुग्धावस्था में अर्द्ध संपत्ति रहती है, उसके बाद की अवस्था पूर्वावस्था की तरह होती है “स एव वा न वा" इत्यादि से निश्चय और प्रमाणों का अभाव प्रतीत होगा है जिससे संदेह उपस्थित होता है, इस संदेह से ही मुग्धावस्था में अर्द्ध संपत्ति की बात निश्चित होती है। उक्त प्रसंग में प्राणायान विघात करने वाली मूळ का उल्लेख नहीं है। वह तो प्राण का एक धर्म मात्र है जैसे कि बाल्यकाल शरीर का एक धर्म है। इसलिए उस पर विचार करना व्यर्थ है । इसलिए जीवावस्था पर ही विचार किया गया है । यह साक्षिवाद है ब्रह्मवाद नहीं है । इस विवेचन से निश्चित होता है कि जो जीव स्वप्नादि दोषों के संबंध से रहित है, वही प्राक्तन कर्म के अनुसार, भगवद् ज्ञाना रहित, ज्ञानाधिकारी भी होता है। न स्थानतोऽपि परस्योभर्यालगं सर्वत्र हि ॥३॥२॥११॥
इदानीं विषय निर्धाराथं ब्रह्म स्वरूपं विचार्यते तत्रप्रथम मन्योन्य विरुद्धवाक्यानां निर्णयः क्रियते । तदर्थ मेतावत सिद्धम् । समन्वयाविरोधाभ्यामेकमेव ब्रह्म प्रतिपाद्यत इति । तत्र यथा कार्यविरोध परिहृत एवं ब्रह्म धर्म विरोधोऽपि परिहरणीयः अन्यथाऽबोधकता स्यात् । तत्र स्वगतधर्माणामविरुद्धानामग्रिमे पादे विचारः । जड जीवधर्मत्वेन प्रतीतानामत्र विचारः क्रियते । तत्र क्वचित् जड जीव धर्मा भगवति बोध्यन्ते, क्वचिनिषिध्यन्ते । यथा सर्वकर्मा सर्वकामः । न चैते जीव धर्मा एव न भवन्तीति वाच्यम् । उच्चावच कर्मणां कामानां च जीव