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धश्च न परिहृतः । " ते त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि, "यतोवाचो निवर्त्तन्त" इति चेत् ? अत आह० प्रकाशवत् यथा सौर प्रकाशी व्यवहार्योऽव्यवहार्यश्च नहि स्वत: संपादयितुं शक्यते स्थापयितुं वा । आगते तु सूर्ये मेघाद्यभावे च सान्निध्यमात्रेण व्यवहारः कत्तु शक्यते । तथा लौकिकवाड. मनोभिर्न शक्यते व्यवहत्तु ईश्वर सन्निधाने तु शक्यत इति द्वयमाह श्रुतिः । कुत एतदवगम्यते ? तत्राह अवैयर्थ्यात् अन्यथा शास्त्रं व्यर्थं स्यात् । चकाराद्धर्माणां तथात्व विरोध: परिहृतः ।" आसीनो दूरं ब्रजति, अपाणिपादों जवनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्ण: इत्यादावलौकिका भगवद्धर्मा उच्यन्ते । अकारणक कार्यवचनात् ब्रह्म धर्माणांचाकार्यत्वं वीधयति, तस्मादव्यवहार्योऽपि न शास्त्र वैफल्यम् ।
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शंका की जाती है कि यदि परमात्मा के गुणों को समस्त व्यवहारों से अतीत मान लेंगे तो भगवत्प्राप्ति के वाचक शास्त्र वचन व्यर्थ हो जायेंगे "इसे मन से ही प्राप्त कर सकते हैं" इत्यादि विरोधों का भी परिहार नहीं हो सकेगा । " तुमसे औपनिषद पुरुष के विषय में पूंछता हूँ" जिसे न पाकर वाणी लीट आती है" इत्यादि वाक्यों का समाधान कैसे होगा ? इस पर प्रकाशवत् आदि सूत्र प्रस्तुत करते हैं । कहते हैं कि जैसे सूर्य का प्रकाश व्यवहार्य और अव्यवहार्य होता है, वह स्वतः अपने को न तो संपादन कर सकता है न स्थापित कर सकता है। सूर्योदय होने पर, मेघादि का अभाव होने पर ही सान्निध्यमात्र से उसका उपयोग किया जा सकता है, वैसे ही परमात्मा को लौकिक वाणी और मन से नहीं जान सकते । ईश्वर के सन्निधान से ही उन्हें जान सकते हैं यही "ते त्वोपनिषदे " "यतो वाचो" आदि दोनों श्रुतियों से ध्वनित होता है । यदि ऐसा अर्थ नहीं करेंगे तो शास्त्र व्यर्थ हो जायेगा । सूत्रस्थ चकार के प्रयोग से संशयित विरोध का परिहार करते हैं, सूत्रकार का कथन है बिना हाथ पैर का भागता और पकड़ता है, कान के सुनता है" इत्यादि भगवान के अलौकिक गुणों का वर्णन है । ऊपर जो अकारणक कार्य की चर्चा की गई है, उससे भगवान के गुणों का अकार्यत्व द्योतन होता है । इस प्रकार अव्यवहार्य होते हुए भी, शास्त्र की विफलता नहीं होती ।
कि - " बैठा हुआ दूर जाता है, बिना नेत्र से देखता और बिना
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आह च तन्मात्रम् | ३|२|१६||
किंचिदाशंक्य परिहरति । नन्वलौकिकानीन्द्रियाणि रोधाभावाय कथं न कल्प्यन्ते । अन्यथा अकारणक कार्यत्वं तस्य f त्वमलौकिकत्वं ततश्च पश्यत्यचक्षुरिति विरोध इत्याशंक्य परिहरति । आह च श्रुतिः स्वयमेव तन्मात्रं