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इसमें प्रक्रम भेद भी है, अर्थात् श्रति का अन्यार्थ नहीं है, ऐसे निराकरण के लिए उक्त पद का प्रयोग किया गया है । “अनादिमत् परं ब्रह्म" इत्यादि स्मृति भी है । इसमें ब्रह्म को सदसत् से विलक्षण कहा गया है । सदसत् में क्षेत्रत्व है, जय के निरूपण में इनका निषेध है। वेदादि में, प्रापंचिक धर्मों को भगवान में बतलाया गया है, वे धर्म उनमें हैं ऐसा नहीं कहा गया है । श्रुति स्मृति दोनों से यही निर्णय होता है कि प्रापंचिक ब्रह्म में स्वाभाविक नही हैं, अपितु औपाधिक हैं।
अतएव चोपमा सूर्शकादिवत ।३।२।१८॥
प्रपंचधर्मा भगवत्युच्यन्त इत्यत्र निदर्शनान्तरमाह । अतएव इममेव निर्णयमाश्रित्य “समः प्लुषिणा समो नागेन समोमशकेन सम एभिस्त्रिभिर्लोकः समोऽनेन सर्वेण" इति निरुपमस्य भगवतो यदूपमानं तत् तद्धर्मसंबंधात् । न चात्र स्वतंत्रता दशधर्मवत्त्वं ब्रह्मणो वक्त युक्तम् । नन्विदमपि विरुद्धमित्याशंक्य दृष्टान्तमाह सूर्य कादिवत् । सूर्येण सहितंजलं सूर्यकम् । “यथा ह्ययं ज्योतिरात्मा विवस्वान् अपो भिन्ना बहुधैकोऽनुगच्छन्, एकधा बहुधा चैव दृश्यते जल चन्द्रवत्" इति यथेतर संश्लिष्टस्योपमानत्वमेवं, समः प्लुषिणेत्यपि। चकारस्तु विरोधाभावो वक्तव्योऽधिकरणंच संपूर्ण मेकदेशिन इति सूचयति तस्माज्जड़जीव धर्माणां भगवत्युपचारो, निषेधस्तु मुख्य इति ।।
प्रपंच धर्म, भगवान के है, इस पर दूसरा निदर्शन प्रस्तुत करते हैं । उक्त निर्णय के आधार पर तो "समः प्लुषिणा समो नागेन" इत्यादि में निरुपम भगवान के जो उपमान दिए गए हैं के उनके धर्म के संबंध से ही हैं। इससे तो यह निश्चित नहीं होता कि ब्रह्म. सा धर्मवाला स्वतंत्र है, यहाँ स्पष्ट विरुद्धता है । इत्यादि संशय पर दृष्टान्त देते हैं- "सूर्यकादिवत्" "जैसा कि सूर्य विभिन्न जलाशयों में अनेक रूप वाला दीखता है, तथा चंद्र एक होते हुए भी जलाधारों में अनेक दीखता है वैसे ही ये ज्योति स्वरूप आत्मा समस्त विश्व में प्रतिबिंबित है" इस उदाहरण में इतर संश्लिष्ट उपमान है उसी प्रकार "समः प्लुषिणा" इत्यादि में भी है। सूत्रस्थ चकार विरोधाभाव तथा सारा अधिकरण एकदेशीय है, इसका सूचक है । इससे निश्चित होता है कि जडजीव के धर्म भगवत्संबंध में औपन्दगिक हैं, उनका नि ध ही मुख्य है।
अम्बुवदग्रहणातन तथात्वम् ।।२।१६।।