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प्रज्ञानघनमात्र "स यथा सैन्धवधनोऽनन्तरऽवाह्यः कृत्स्नो रस एवं वा अरेऽयमात्माऽनन्तरोऽबाह्यः कृत्स्नः प्रज्ञान धन एव' इति स्वरूपा रक्तानामिन्द्रियाणामभावात् । न च क्रियाभावोऽपि । वेदविरोधेन तथा , यितुमशक्यत्वान् । वेद निःश्वासायन भूतसमुत्थानादेरुक्तत्वाच्च । अतो नेन्द्रियाणां परिकल्पना । किन्तु सर्वाकार स्वरूपं वस्त्वेव तादृशमिति मंतव्यम्, कृत्स्न वचनात् । चकारात् "सर्वेन्द्रियविवर्जितम्" इति स्मृतिरपि । नस्मान्नेद्रिय कल्पना विरोधः ।
कुछ संशय करते हुए परिहार करते हैं। कहते हैं कि "पश्यत्यचक्षः" इत्यादि में जो इन्द्रियों का वर्णन है, उसे लौकिक इन्द्रियों से विरुद्ध अलौकिक क्यों नही मान लेते, ऐसा मानने से स्वतः ही विलक्षणताओं का समाधान हो जावेगा । अलौकिक न मानने से, अकारणकार्यत्व, नित्य अलौकिकत्व आदि संभव नहीं है, “पश्यत्यचक्षुः" इत्यादि विरोध का परिहार भी सम्भव नहीं है । इस संशय का परिहार करते हैं कि इसका समाधान तो श्रुति ही कर रही है वह उसे प्रज्ञानधन मात्र ही कहती है ।" जैसे कि नमक की डली बाहर से भीतर तक एकरस है, वैसे ही वह यह आत्मा भी बाहर से भीतर तक प्रज्ञानघन है" इसमें स्वरूपातिरिक्त इन्द्रियों का निषेध किया गया है। वस्तुतः परमात्मा में लौकिक अलौकिक किसी भी प्रकार की इन्द्रियाँ नहीं हैं । और न उनमें क्रियाभाव ही है। वेद विरुद्ध इस प्रकार की कल्पना की भी नहीं जा सकती। वेदों में संसार की सृष्टि और विनाश आदि का जो उल्लेख मिलता है उनमें भी कहीं भगवान की इन्द्रियों का उल्लेख नहीं है। इसलिए इन्द्रियों की परिकल्पना नहीं करनी चाहिए अपितु यही मानना चाहिए कि समस्त साकार वस्तुएँ उन्ही की स्वरूप हैं, वही परमात्मा की साकार मूर्ति है। "सर्वेन्द्रिय विवजितम्" इत्यादि स्मृति भी है। इसी भाव से इन्द्रिय कल्पना का विरोध भी नहीं है। दर्शवति चाथोऽपि स्मर्यते ।३।२।१७॥
पुनः प्रकारान्तरेण विरोधमाशंक्य परिहरति । ननु ब्रह्म जगत्कारणमिति सिद्धम् । तच्च समवायि निमित्तं चेति च । कारण धर्मा एव हि कार्यों भवन्ति । असंभावनायां त्वन्यथा कल्पनम् । कामादयो धर्माश्च श्रुतौ विहिता । ते ब्रह्मण एव भवितुं युक्ताः । निपेधिकाऽपि श्रुतिः । न हि वेदवादिनामणुमात्रमप्यन्यथा कल्पनमुचितमित्याशंक्य परिहरति । दर्शयति श्रुतिरेव जडजीव धर्माणां भगवत्यभाव इति । 'द्वेवाव ब्रह्मणोरूपे"इत्युपक्रम्य द्वेधा पंचभूता न्युक्तवा "अथात् आदेशो नेति नेति'' इत्याह । इति शब्दः प्रकरणवाची। ब्रह्म पंच महाभूतानि भवति । न त्वेवं प्रकारकम तत साधयति । न भवत्येव ब्रह्म तादृशम् ।