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मुख्य सिद्धान्तं वक्त मेकदेशिनं दूषयति । तु शब्दस्तथा सिद्धान्तं व्यावर्त यति । तथात्वं समवायातिरिक्तस्य तदर्मयोगात् जडजीन धर्मयोगात् सर्व कामत्वादयो न भबंति, कुतः ? अम्बुवदग्रहणात् सर्व परस्य हि प्रतिविम्बेऽधिकरण धर्मवस्वम् । तन्न रूपरहितं तत्र विद्यमानं च न प्रतिविम्बत इति वक्तव्यम् । तथापि स्वमतविरोवादम्बुवदग्रहणमिति । स्वच्छमम्बू प्रतिविम्बं गृहणाति, नहि तथा धर्माग्रहीतुं शक्नुवन्ति । धर्मत्वाच्च, सर्वाधारत्वेन तथोच्यमाने वैयर्थ्य मिति पूर्वमवोचाम । न च भ्रमात्, कल्पनं वेदेनोच्यते, अप्रतारकत्वात्, सर्वज्ञत्वाच्च । विप्लवादिनं एनं वचनं, न वैदिकस्य । पृथिव्यां तिष्ठन्नित्यादि विरोधश्च । तस्माद् ब्रह्म धर्माएव सर्वकामादयो न तूपाधिसंबंधौपचारिका इति ।
मुख्य सिद्धान्त बतलाने के लिए एक देशीय मत का निराकरण करते हैं। तु शब्द उपर्युक्त सिद्धान्त की विरुद्धता का सूचक है । उक्त सिद्धान्त मानने वाले, सर्वकामत्व आदि धर्मों को जो समवायि से भिन्न, जडजीव के योग से मानते हैं, वो असंगत है। जल और प्रतिबिम्ब का जो उदाहरण परमात्मा और जगत के संबंध में दिया गया वो भी असंगत है। समस्त जगत में, परब्रह्म के प्रतिबिम्ब को मानते हुए, आधार धर्मवाला मानना, एक देशीय मत है। रूपरहित ब्रह्म का, रूपवान जगत में प्रतिविम्बित होना संभव नहीं है। वे लोग तो ब्रह्म और जगत को विलक्षण मानते हैं और फिर स्वयं ही अपने मत से विरुद्ध, जस प्रतिबिम्ब का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, ये समझ में नहीं आता । दूसरी बात ये है कि स्वच्छ जल ही प्रतिबिम्ब ग्रहण कर सकता है । जल और जगत का ऐक्य हो भी नहीं सकता । जगत, जल के समान स्वच्छ तो है नहीं, फिर वह स्वच्छतम परमात्मा के धर्मो को कैसे ग्रहण कर सकता है ? और फिर तीसरी बात ये है कि ये जगत तो परमात्मा का ही कार्य है, कार्य में समवायिकारण का प्रतिबिम्ब कहीं भी देखा नहीं जाता। परमात्मा को सर्वाधार मानते हुए, फिर उन्हें जगत में प्रतिबिम्बित मानना, यह तो निरर्थ क मत है, ऐसा हम पहिले भी कह चुके हैं । वेद से ऐसी भ्रमात्मक कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि वेद, अप्रतारक (स्वयं अपने विरुद्ध न बोलने वाले) और सर्वज्ञ हैं "यथा हयं ज्योतिरात्मा" इत्यादि वचन विप्लवादियों के ही हैं, वैदिक नहीं हैं । उक्त मत को मानने से 'पृथिव्यांतिष्ठन्' इ!यादि वेद वचन से विरोध भी होता है। इससे निश्चित होता है कि सर्वकाम आदि गुण ब्रह्म के ही हैं। वे गुण उनमें भौगाधिक मा औपचारिक हों सो बात नहीं है। वृद्धि हासभात्तवमन्तर्भावादुभयसांमजस्यादेवम् ।३।२।२०॥