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यश्चास्मि यादृशः", ततो मां तत्त्वतः ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्” इति वाच्यम् । शास्त्रानारम्भ प्रसंगात् । अयं च विरोधः परिहरणीयः । सर्वेहि विरोधा अत्र चिन्त्यन्तेनापि तत्तदुपादानभूत प्रदेश विशेषेणाविरोधः । अनुवादकत्वेनवैयथ्यपि - त्तेः । न च भगवति भेदोऽस्ति । प्रत्यारम्भमेकमेवाद्वितीयमिति वचनात् । अल्पकल्पनायामपि श्रुति विरोधः सिद्धः । श्रुत्यविरोधार्थमेव हि प्रवृत्तेः तस्मान मतान्तरानुसारेण जडजीव धर्माणां सत्त्वासत्त्वे परिहत्तु शक्ये ।
कोई ब्रह्मवादी ऋषि उपनिषदों से वर्ण्य भगवान के विरुद्ध धर्मों को अविरुद्ध बतलाते हैं । सारे जगत में भगवान विद्यमान हैं, क्योंकि वे ही सबके कारण हैं । जैसे कि पार्थिव पदार्थों की कारण रूप पृथिवी, घटपट स्तम्भ आदि कार्यों में निमित्तानुसार उन उन रूपों को धारण करती है वैसे ही भगवान भी अस्थूलादि द्रव्यों में और रसादिकों में तथा गुणों में उन उन रूपों को धारण करते हैं । स्थान धर्मरूप वे चिन्ह परमात्मा में भासित होते हैं । इसलिए परमात्मा की दोनों परस्पर विरुद्ध विशेषतायें संगत होती हैं; इत्यादि एक मत है । दूसरा मत हैं कि कारण ब्रह्म ही प्रदेश भेद से, रूप और अरूप होता है, क्योंकि उसमें अचिन्त्य सामर्थ्य है । यदि उक्त बात न मानी जाय तो प्रश्न होता है कि वे विशेषतायें उन उन वस्तुओं में कहाँ से आ जाती हैं ? यदि कारण में वे विशेषतायें न रहें तो असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे संभव है ? यही बात सूत्र में " अपि " शब्द से बतलाई गई है । ये दोनों ही मत असंगत हैं, ऐसा सूत्रस्थ "न" शब्द लक्ष्य कर रहा है । उपनिषदों में सभी जगह भगवान के ऐसे ही विलक्षण रूप का वर्णन किया गया है। जो कि ठीक ही है । भगवत्स्वरूप के प्रतिपादक "अणु अस्थूल" आदि वाक्य केवल अनुवादक मात्र नहीं हैं, यदि उन्हें ऐसा मान लेंगे तो वे निरर्थक सिद्ध होंगे। यदि ब्रह्म की ये विशेषतायें औपाधिक मान ली जायें तो, उनके ज्ञान से मुक्ति प्राप्ति की संभावना तो हो नहीं सकती । "उसे जानकर मृत्यु का अतिक्रमण करता है” “मुझे भक्ति से जानता है" मुझे तत्व से जानकर मुक्त हो जाता है "इत्यादि वाक्य स्पष्ट रूप से, भगवद् शान के उपरान्त मोक्ष प्राप्ति की चर्चा करते हैं। “यस्या मतं तस्य मतं" "अविज्ञातं विजानतां" इत्यादि वाक्यों में जिस अचिन्त्यता का उल्लेख है उससे सुखपूर्वक ज्ञानोदय संभव नहीं है । यदि संभव हो जाय तो, विचार शून्य व्यक्तियों को भी ज्ञान हो सकेगा, फिर विचार शास्त्र ( वेदांतशास्त्र) की उपादेयता समाप्त हो जायगी । इसलिए उक्त विरोध का परिहार आवश्यक है । उक्त प्रकार की सभी feariओं पर वहाँ विचार करते हैं। यदि इन वाक्यों को अनुवाद माना जाय तो