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संधि में स्वप्न होता है उसकी सृष्टि सत्य है, ऐसा उक्त श्रुति में स्पष्टतः कहा गया है । जैसा की श्रुति कहती है, ठीक वैसा सब कुछ स्वप्न में दीखता है । जैसा कि-नैय्यायिक कहते हैं कि-स्वप्न में, इसी सृष्टि को देखा जाता है सो उनका कथन असंगत है । प्रायः सोकर उठने पर, लोग देखे गए स्वप्न का स्मरण करते हैं, उससे सन्ध्य सृष्टि की पुष्टि हो जाती है। "न तत्र. रथा" इत्यादि का जो निषेध किया गया और पुनः उनकी सृष्टि की चर्चा की गई उससे भी सृष्टि का निश्चय होता है। श्रुतिवादियों के लिए श्रुति ही प्रमाण होती है अनुभव की बात करना तो व्यर्थ है । स्वाप्न सृष्टि का अस्तित्व है, यही मानना चाहिए। निर्मातारं चैके पुत्रादयश्च ।३।२॥२॥
काठकेचतुर्थवल्ल्यां श्रूयते “य एव सुप्तेषु जागति काम-कामं पुरुषो निर्मिमाणः, तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवाऽमृतमुच्यते" इतिनिर्मातारमेके वदंति । यद्यपि सुप्त्युत्क्रान्त्योर्भेदेनेत्यत्र, न तत्र रथा इत्यपि ब्रह्म प्रकरणं तथापि नियत धर्मपक्षे जीव एव कर्तेति प्रतिभाति । तदर्थं निःसंदिग्धं वचनमुदाहरति । भगवन्निमितत्वात् स्वप्नस्थस्यापिसत्यत्वम् । न हि कर्तु: स्वापोऽस्ति येन भ्रमः स्यात् । जागर्तीति वचनात् । इच्छापूर्वकं च सर्व सृजति ।" शतायुषः पुत्र पौत्रानिति कामविषयाः पुत्रादय उक्ताः । "ते च निर्मिताः परलोक साधका' इति लोकत्रय कल्पना । चकारद्वयेन कार्यकारण गता सर्वे धर्मा उक्ताः । तस्माच्छृत्युपपत्तिभ्यां स्वप्न प्रपचस्य सिद्धत्वात् तत्कृत गुणदोष संबंधे पूर्वोक्त देह निर्माणं व्यर्थम् इत्येवं प्राप्तम् ।
काठक संहिता की चतुर्थ वल्ली में एक वाक्य आता है-'य एष सुप्तेषु जागति" इत्यादि इसके अनुसार तो समझ में आता है कि स्वप्न का कोई निर्माता है । यद्यपि ये सुषुप्ति और उत्क्रान्ति से भिन्न अवस्था है, “न तत्र रथा" इत्यादि से ब्रह्म प्रकरण निश्चित होता है, फिर भी इसमें धर्म पक्ष नियत है इसलिए इसका कर्ता जीव ही प्रतीत होता है। किन्तु कर्तृत्व निश्चित करने के लिए—'य एष सुप्तेषु" इत्यादि असंदिग्ध वचन उद्धत कर दिया । अतः ये भगवनिर्मित है अतएव स्वप्न भी सत्य है। क्योंकि उस स्थिति में कर्ता ब्रह्म तो स्वप्न देखता नहीं जिससे इसे भ्रम कहा जा सके । जागति आदि वचन से उसका जागना निश्चित होता है । वह इच्छा पूर्वक सब सृष्टि करता है । जीव स्वयं इच्छापूर्वक अपने लिए अनिष्ट स्वप्न की कल्पना नहीं कर सकता। शतायुषः