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जा सकता, उसे पुरुष मानने में, श्रौत उपसंहार की बात भी नहीं बनती। "शीर्यते इति शरीरम्" इस निरुक्तीय परिभाषा के अनुसार शरीर शब्द से, वैराग्य आदि युक्त वस्तु विशेष का बोध होता है। योग्य देह, ब्रम्हज्ञान के लिए, साधनों सहित प्राप्त होता है, यही पंचाहुति विज्ञान का सिद्धान्त है।
तृतीय अध्याय द्वितीय पाद
सन्ध्ये सृष्टिराह हि ॥३॥२॥१॥
पूर्वपादे अधिकारि योग्यदेहो निरूपितः । द्वितीये जीवस्य मुक्तियोग्यता निरूप्यते । तत्र प्रथमं स्वप्नं निरूपयति । स्वप्नस्य सत्यत्वे तत्कृत गुणदोष संबंधो जीवस्य भवेत् । ततश्च निरूपिता शुद्धियर्थास्यात् । अतः स्वप्नस्य मिथ्यात्वं प्रदर्शयितुमधिकरणारम्भः।
पूर्वपाद में अधिकारी योग्य देह का निरूपण किया गया, अब द्वितीय पाद में जीव की मुक्ति योग्यता का निरूपण करते हैं। सर्वप्रथम स्वप्नावस्था का निरूपण करते हैं । स्वप्न को सत्य मानने से, उससे संबद्ध गुण दोष जीव को भी लगेंगे, अत: उसके लिए कही गई शुद्धि वृथा हो जायगी। इसलिए स्वप्न के मिथ्यात्व को दिखलाने के लिए अधिकरण का आरंभ करते हैं।
तत्र पूर्वपक्षमाह--सन्ध्ये स्वप्न सृष्टिराह ..."तस्य वा एतस्य पुरुषस्य द्वे एव स्थाने भवत् इदं च परलोक स्थानं च सन्ध्यं तृतीयं स्थानम् "इत्युपक्रम्य" न तत्र रथा न रथयोगा न पन्थानो भवत्यथरयान् रथयोन पथः सृजन्" इत्यादिना सृष्टिराह संध्ये स्थाने सृष्टिरस्ति, यतः श्रुतिः स्वयमेवाह । युक्तश्चायमर्थः । ययाश्रुतिर्वदति तयैव स्वप्ने दृश्यते । देवादिवाक्यानां प्रबोधेऽपि बाधाऽभावात् । न चेयमेव सृष्टिस्तत्र दृश्यते । न तत्र रया इत्यादिना निषेधात् । श्रुतिवादिनां श्रुतिरेव प्रमाणम् । किम्पुत्ररनुभवसेवादिनी, तस्मात् स्वप्ने सृष्टिरस्ति ।
उक्त विषय पर पूर्वपक्ष रूप से सूत्र प्रस्तुत करते हैं "संध्ये स्वप्न सृष्टिराह" कहते हैं कि-"तस्य वा एतस्य" से लेकर "न तत्र रथा रथयोगाः" इत्यादि तक स्वाप्न सृष्टि का वर्णन किया गया है । जागरण और निद्रा की