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कोई (शंकर और भाष्कर) 'ज्ञात्वादेवं सर्वपाशापहानिः" "तस्माभिभ्यानात्तृतीयं देहभेदे" इत्यादि भुति के अनुसार भभिध्या को जीवकत्तूंक मानकर भीष की ब्रह्मभूत होने की कल्पना कर-ऐश्वर्यादि के भतिरोभाव का समर्थन करते हैं । उक्त श्रुति में पराभिध्यान का अर्थ परमेश्वर विषयक ध्यान किया गया है, शब्द साम्य होने से वे पराभिध्यान को जीवकर्तृक मान बैठे और पूर्व तिरोहित गुणों को पराभिध्यान के बल से अतिरोहित मानने लगे। उन्होंने कहा कि ईश्वर के परिज्ञान न होने से बंधन तथा उनके परिज्ञान हो जाने से विपर्यय अर्थात् मोक्ष होता है। वस्तुतः उन्हें ब्रह्मवाद का परिज्ञान नहीं है, इसीलिए ऐसी असंगत बात उन्होंने कही, साधनोपदेश करने वाली श्रुति की उन्होंने भ्रान्त कल्पना की है। इसलिए ये मत भी उपेक्ष्य है। निद्रा में विबेक शान का अभाव रहता है, इसलिए तिरोधान की व्याख्या भी कर दी गई।
सवभावो नाडीषु तच्छु तेरात्मनि च ॥३॥२७॥
प्रसंगाज्जीवस्याज्ञानं निरूप्य सुषुप्तौ केवलमज्ञानं निरूपयितुं स्थानस्वप्नाभावे निरूपयति ।
प्रसंग से जीव की अज्ञानावस्था का निरूपण करके अब सुषुप्ति में केवल अज्ञान का निरूपण करने के लिए स्थान स्वप्नाभाव का निरूपण करते हैं।
एवं श्रूयते-"नाडीरनुक्रम्य, तासु तदा भवति यदा सुप्तः स्वप्नं न कंचन पश्यति । अथास्मिन् प्राण एवैकधा भवति, तथा प्राज्ञेनात्मना संपरिष्वक्तो न बाह्य किंचन वेद नान्तरमिति ।" तत्र संशयः, स्वप्नवत् प्रपंचसृष्टि मायिकीमपि भगवान् करोति, न वा ? इति संशयः ।
श्रुति में कहते हैं कि-'नाडी का अनुक्रमण करके उनमें लीन होकर जब सोता है तो स्वप्न नहीं देखता, इसमें उसके प्राण एकीभूत हो जाते हैं, उस स्थिति में वह प्राज्ञ आत्मा से संलग्न होकर न बाहर की बात जानता है न भीतर की ।" इस पर संशय होता है कि भगवान् निद्रा अवस्था में भी स्वप्न की तरह मायिक प्रपंच सृष्टि करता है क्या ?
तत्र “य एष सुप्तेषु जागति' इत्यत्र जीवस्वापमात्रे भगवत्सृष्टेरुक्तत्वात्, स्वप्नं न कंचन पश्यति" इत्यत्रापि दर्शन मात्र निषेधात "न बाग किंचन वेद नान्तरमिति ब" नागरग स्वप्न प्रपंचयोरविशेषेणादर्शक भनात् सुषुप्ताववि