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उक्त तर्क का प्रतिषेध करते हैं कि चरण श्रुति की अपेक्षा है, इसलिए वह सार्थक है, घूमादिमार्ग में उसकी अपेक्षा है। इष्टापूर्न आदि काम्य कर्म करने वालों को, फल भोग के बाद उत्पत्ति होने पर सुख प्राप्ति होती है मुख के बाद दुःख होता है इस नियमानुसार पाप के कारण उन्हें अशुभ शरीर की प्रप्ति नहीं होती । रमणीय अनुष्ठान करने वालों को रमणीय और की ही प्राप्ति होती है, यही उक्त श्रुति का कथन है। इस नियम से अशुभ शरीर नहीं मिलता। अन्यन्य पापों की प्राप्ति का निषेध करने से यह सार्थक है, प्रारब्ध भोग का निषेध इसमें नहीं किया गया है।
किंच, रमणीय योनिः किमाकस्मिकी, सकारणा वा ? नाद्या वेदवादिनाम् । द्वितीयेतु “स्वकर्मणा पितृलोक" इति वस्वादित्यरूपता च वक्तव्या। "प्रजामनु प्रजायन्तें श्मशानान्त क्रियाकृत" इति च । विद्या मा सोमपा" इत्यादिना इन्द्र लोकभोगानन्तरं तथैव पुनर्भवनं च वक्तव्यम् । नच सर्वेषामैक्यम् । भिन्नरूपत्वात तस्मात् कर्मकर्तृवैचित्र्येण श्रुतिस्मृतिभेदा, समर्थयितव्या, न त्वेकमपरत्र निविशते उपरोध प्रसगात् । तथा च प्रकृतेऽपि अनुशयाभावे भक्षण भवनयोनियमो न स्यात् । ब्राह्मणा दीनामप्यन्ने वलिहरणे स्वचाण्डालयोर्भक्षणम् । अनुशयस्य, नियामकत्वे तुषादिष्वन्नभाव एव यावत् समीचीन रेतोभावः । तस्मादुपलक्षणतैव चरणश्रुतेर्युक्ता । तस्मादनुशय सहित एव वृष्टिभावं प्राप्नोतीति सिद्धम् ।
प्रश्न होता है कि यदि अनुशय नहीं मानते तो रमणीय योनि आकस्मिकी होती है या सकारणा ? वैदिक लोग आकस्मिकी तो मानते नहीं । अतः स्वकर्म से होती है यही मानना चाहिए । “स्वकर्मणा पितृलोक'' इत्यादि में स्वकर्म से वसु आदित्य आदि रूपों की प्राप्ति कही गई है । "प्रजामनु प्रजायन्ते' इत्यादि में भी स्वकर्मानुसार जन्म की पुष्टि की गई है। "त्रविद्या मां सोभवा" इत्यादि में इन्द्रलोक भोग के बाद पुन: जन्म की बात कही गई है। इन सबों में एकता नहीं है, सबका भिन्न भिन्न रूप है । इसलिए कर्मकर्ता की विभिन्नता के अनुसार श्रुति स्मृति के भेद का समर्थन करना चाहिए । एक श्रुति दूसरी में संगत नहीं हो सकती, एक दूसरे से मिलाने में उपरोध होगा। प्रकृत में भी अनुशय के बिना, भोग और जन्म नहीं होता। कर्मानुसार ब्राह्मणादि ऊँची जाति वाले भी बलि करके कुत्ते चाण्डालों की तरह मांस भक्षण करते हैं। ब्राह्मणों के द्वारा खाकर किए गए मल को शूकर खाते हैं। कर्मभोंगानुसार