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बात सही है, यदि उसे सही नहीं मानेंगे तो, प्रकरणस्थ प्रश्न और निरूपण दोनों ही गलत हो जावेंगे । पुनः तर्क देते हैं कि यदि जीव प्रारम्भ से अंत तक जल से ही संसक्त रहता है तब तो अवान्तर फल साधक अंतिम रूप भी उसका जल रूप ही होगा। इस पर कहते हैं नहीं, आगमन इस रूप में नहीं होता, वह तो भोगानुसार होता है। देवकृपा से अपने अपने भोगानुसार, जल से संसक्त जीवों की भिन्न प्रकार से वृष्टि होती है।
चरणादितिचन्नोपलक्षणाति कार्णाजिनिः ।।
किंचिदाशक्य परिहरति । ननु नात्रोत्तमजन्मार्थमनुशयोऽपेक्ष्यते, चरणादेव भविष्यति । "तद् य इह रमणीयचरणा अम्याशो ह यत् ते स्मणीयां योनिमापघेरन्" इत्यादित्य यः पूर्व जन्मनि विहिताचरणं करोति स उत्तमं जन्म प्राप्नोति, यस्तु निषिद्धाचरणं करोति स श्वादियोनि प्राप्नोति इति “साधुकारी साधुर्भवति" इत्यादि श्रुत्या च प्रतिपाद्यते । प्रकृते तु तस्य रमणीयचरणस्य चरणादेव तस्य सम्पग्जन्म भविष्यति । किमनुशय सहभावेनेति चेद् न। चरण श्रुती या योनिरुक्ता सा उपलक्षणार्था, अनेन पूर्व जन्मनि समीचीनं कृतमितिज्ञापिका न तु तस्मिन् जन्मनि समीचीन करणे नियामिका । अन्यथा ब्राह्मणानां निषिद्ध करणं न स्यात् । तस्मादनुशयोऽपेक्ष्यते ज्ञानोपयोगार्थमिति काष्र्णाजिनिराचार्यों मन्यते ।
कुछ आंशका करते हुए परिहार करते हैं । कहते हैं कि उत्तम जन्म के लिए तो अनुशय अपेक्षित होगा नहीं, उसमें तो पूर्व जन्म का आचरण ही कारण होगा जैसा कि "तद्य इह रमणीय चरण: इत्यादि श्रुति कहती है। इससे तो यही निश्चित होता है कि जो पूर्वजन्म में शास्त्र विहित सदाचरण करता है वह उत्तम जन्म प्राप्त करता है और जो शास्त्र विरुद्ध सदाचरण करता है वह श्व आदि निम्नयोनियों को प्राप्त होता है। "साधुकारी सानुभवति" इत्यादि से भी इसी का प्रतिपादन किया गया है। लोक में तो यही मानना ठीक है कि सदाचरण वाले का, उस आचरण के बल से ही, उत्तम जन्म होता है, अनुशय की अपेक्षा ही क्या है ? इसका उत्तर देते हैं कि चरण श्रुति में जो योनि की चर्चा की गई है वह उपलक्षणार्थक है । इस उस व्यक्ति ने पूर्व जन्म में सही आचरण किया है, इसी की ज्ञापिका वह श्रुति । वर्तमान जन्म के सही कम की नियायिका नहीं है। यदि नियायिका होती तो ब्राह्मणों के निषिद्ध कर्मों की चर्चा श्रुतियों में न की जाती। इसलिए ज्ञानोपयोग के लिए अनुशय अपेक्षित हैं ऐसा कार्णाजिनि आचार्यों की मान्यता है।