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तत्र यथेतामित्याकाशा एव ।" आकाक्षाच्चन्द्रमसमिति" पूर्वमुक्तत्वादाकाशस्य मार्गतैव । “वायुर्भूत्वा धूमोभवति" इत्यादिषु तत्तद्भावः श्रूयते, तेच विकृताः तदनन्तरभावित्वात् वृष्टिरपि विकृतव। तस्मान्नकारणत्वमित्याशंक्य परिहरति सा वाय्वादिरूपापत्तिराभाव्यापत्तिरेव । वायुवदाभा आभानं मध्ये वायुमंडल मागच्छन्ति आहुतिर्वायु भवन शब्देनोच्यते। आकृतेरेव पदार्थत्वात् व्यापत्ति शब्देन च तेजोभावापन्नस्य जलभावापत्तो कांतिनाशान्नाश इवद्योतयति । कुतः ? उपपत्तेः । तथैवोपद्यते । चित्रतुरगादिषु विकारस्य विकारन्तरापत्तावियमेव व्यवस्था । उपासनायां न तदपि, न च भूत्वाश्रुतेर्बाधः । प्रतिनियत पदार्थाहि ते। भवनावरोहनाभ्यामेव तथा वचनात् । अन्यस्यान्यभावं वदंती श्रुतिरेव गौणत्वं वदति । कारणांशभाव व्यतिरेकस्थले तथैव प्रतीते: तस्मात् तदाकृतिमात्रेण न स्वरूपान्यथाभावः ।
कुछ संशय करते हुए पंरिहार करते हैं। इस पंचाहुति प्रकरण में, कारण जल की ही वृष्टि होती है, ऐसा नहीं कह सकते । धूममार्ग का वर्णन करने वाली श्रुति में जिसमें कि इसी के समान वृष्टि से अन्नभाव बतलाया गया है। "तस्मिन् यावत् संपातम्" से लेकर "तिलमापाजायन्ते" तक जो प्रक्रिया बतलाई गई है उसमें “यथेतम्" इत्यादि से आकाश मार्ग से ही संचरण कहा गया है। "आकाशाच्चंद्रमसम्" इत्यादि में भी पहिले आकाश मार्ग का ही उल्लेख किया गया है । "वायु होकर धूम हुआ" इत्यादि में भी उन उन रूपों में होना बतलाया गया है, वे सारे ही रूप विकृत हैं, मूल तो कह नहीं सकते, इसलिए उन्हीं में गिनाई गई वृष्टि भी विकृत ही है ऐसा मानना पड़ेगा, उसे मूल जल रूप तो कह नहीं सकते । इत्यादि संशय करते हुए परिहार करते हैं कि जो वायु आदिरूप होने की बात है वो, आभाव्यापत्ति मात्र है अर्थात् वायु की सी आभा जब वायुमण्डल में आती है तो, उस' आहुति रूप आभा को वायु होना कहा गया है। आकृति ही पदार्थ है, इसलिए, तेज भाव को प्राप्त वस्तु, जब जलभाव को प्राप्त होती है तो उसकी पूर्वकान्ति नाश हो जाती है इसलिए उसका वह पूर्वरूप नष्ट सा प्रतीत होता है वस्तुतः मूल तत्त्व तो नष्ट होता नहीं उसकी आभामात्र नष्ट होती है] प्रायः चित्र में चित्रित घोड़ा आदि अन्य चित्रित वस्तुओं के सांकर्य से दूसरे रूप में ही समझ में आते हैं, वैसे ही उक्त व्यवस्था भी है। उपासना मार्ग में उक्त बाधा भी नहीं है, और न "भूत्वा" श्रुति में ही बाधा है। वहाँ तो सभी पदार्थ जैसे के तैसे ही हैं, जन्म, आरोह और अवरोह इत्यादि का भी वैसा ही उल्लेख मिलता है । अन्य वस्तु का अन्य रूप बतलाने वाली श्रुति, वस्तुतः गौण ज्ञापन करती है। कारणांशभाव के अतिरिक्त स्थल पर उसकी गौण प्रतीति ही