________________
३२३
'राजदण्ड भोगी व्यक्ति को जो दुःख होते हैं, वह यम लोक में प्राप्त दुःख या स्वर्ग में प्राप्त रंभासंयोग से प्राप्त सुख के समान नहीं होते । ईश्वरेच्छा से जड भरत ने ही, पंचातिविधि के बिना दो अधिक जन्मों को प्राप्त किया, उनके तीन जन्मों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, उन्हें बाद के जन्मों में भी "मैं भरत हूँ' ऐसा आभास बना रहा । पूर्वस्मृति बनी रहने से, उनके वे तीन जन्म, बाल्यादि अवस्थाओं के समान ही थे । "तस्माज्जायस्व" इत्यादि से स्पष्टतः यम मार्ग की विलक्षणता दिखलाई गई है । महाराज भरत ने पंचाहुति के नियम से वे शरीर नहीं प्राप्त किये तो कोई अनहोनी या अनियमित बात नहीं है, ज्ञानपयोगि देह में भी प्रभु का अंश विद्यमान रहता है क्योंकि पुष्टिमार्ग अर्थात् भक्ति मार्ग का अवलम्ब ले लेता है इसलिए, मर्यादा अर्थात् शास्त्रीय मार्ग में घटित ऐसी घटनायें अनहोनी नहीं हैं । इन्हें गलत भी नहीं कह सकते ।
स्मर्यतेऽपि च लोके | ३|१|१६||
साधकान्तरमाह । अपि च लोकेऽपि मूर्च्छादिषु यम लोक गमन संभाषण पुनरागमनानि स्मर्यन्ते ।
प्रायः ऐसे भी उदाहरण देखने को मिलते हैं कि रुग्ण व्यक्ति मूर्च्छावस्था में यमलोक गमन, यमदूत संभाषण, और पुनः लौटकर आना आदि अनुभव करता है, तथा मूर्च्छा दूर होने पर उन अनुभूतियों को बतलाता है ।
दर्शनाच्च | ३|१|२०|
यम पुरुषा दृश्यन्तेऽपि कैश्चिदजामिल प्रभृतिभिः चकाराट् तेषां वाक्यादि श्रवणम् । तस्माद् वैवस्वतमार्गे न किमपि बाधकमिति सिद्धम् ।
अजामिल आदि को यमदूत प्रत्यक्ष दीखे भी और उन्होंने उनका संभाषण भी सुना । इससे यममार्ग की बात निर्बाध सिद्ध होती है ।
तृतीयेशब्दावरोधः संशोकजस्य |३|१|२१||
तृतीयामाहुति विचारयति । तत्र वृष्टेरन्नमिति तृतीयाहुतिः सफला । पूर्वद्वयं शब्दै समधिगम्यम् । वृष्टेन्नमिति साधनफलयोः प्रत्यक्षत्वान्न वृष्टिमात्रेणान्न भवति बीजव्यतिरेकेण । बीजस्य हि फलम् । न निमित्तमात्रेण तद्भावो वक्तुं शक्यते, तस्माद संगतम् वृष्टेरन्नम् । इत्याशंक्याह - तृतीये शब्दावरोधः, तृतीयाहुत शब्देन, शब्द सांम्येन कारणभूतस्य जलस्य अवरोधो ग्रहणम् । “सदेव सोम्येदमग्र आसीत्" इत्यत्र " तत्तेज ऐक्षत्", बहुस्यां प्रजायेय" इति, "तदपोऽस्जत् "