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पूर्व जन्मनीय धर्म चित्तशुद्धि में उपयोगी होता है उस समय में किये गये, गंगा स्नान आदि, श्रौतांग धर्म हैं। पाप के अभाव होने और पुण्य के उपक्षीण होने से उन लोगों की पंचाग्नि प्रकार की गति होती है । ज्ञानोपयोगी जन्म में पाप संश्लेष का अभाव, कैसे संभव है, वैसे उपाय का आगे वर्णन करेंगे । "पितृमेध" इत्यादि प्रथम आहुति का मंत्र " अर्वाग्विलश्चमसऊर्ध्वबुध्न" इत्यादि मंत्र की तरह सिद्धार्थ बोधकमात्र है, आहिताग्नि मात्र का बोधक नहीं है, अतः यम गति का नियामक नहीं है । त्रेताग्नि विद्या से रहित जीवों के पुण्म पाप का भोग, यम द्वारा ही होता है । " वैवस्वते विविच्यन्ते यमे राजनि" इत्यादि में, यमगति संबंधी पंचाग्नि विद्या की व्यवस्था का उल्लेख है । जिसकी चित्तशुद्धि हौ चुकती है, उत्तर काण्डोक्त पंचाग्नि विद्या व्यवस्था है जिस स्थिति में चित्तशुद्धि का भाव अभाव रहता है, उसमें दोनों काण्डों की व्यवस्था हो सकती है । "वैवस्वते विविच्यन्ते" इत्यादि में तों एक ही प्रकार की व्यवस्था दी गई है । सकाम निष्काम का भेद तो वेदांती भी स्वीकारते है, पाप के लिए यम की अपेक्षा उन्हें स्वीकार्य है अतः उस गति का वे भी उल्लेख करते हैं। इससे निश्चित होता है कि सभी की सोमगति नहीं होतीं ।
स्मरन्ति च |३|१.१४ ॥
स्मरन्ति व्यासादयः “यमेन पृष्ट स्तत्राहं देवदेव जगत्पते, पूर्वत्वमशुभं भुंक्ष्व उताहो नृपते शुभम् । " इत्यादि चकाराल्लोक प्रसिद्धिः ।
यमगति की चर्चा व्यासादि ने भी की है- "यमेन पृष्ट स्तत्राहं" इत्यादि । लोक में भी यम प्राप्ति की बात प्रसिद्ध है ।
अपिसप्त | ३ | १|१५।।
चेत्यनुवर्त्तते । पापोपभोगार्थ यमालय गमनं अंगीकर्त्तव्यम् । यस्तत्र नरका: सप्त सन्ति रौरवादयः । सप्तसंख्या संख्याभेदेष्वरकक्षा । सर्वधा निराकरणाभावा सप्तग्रहणम् । तस्माद् यमगतिरस्ति ।
पाप के उपभोग के लिए यमालय में गति होती हैं यह स्वीकारना चाहिए । मालय में रौरवादि सात नर्क हैं । नर्कों की विविध संख्या में सात की संख्या। तो विशिष्ट है । नरकों की अस्वीकृति के निराकरण के भाव से केवल विशिष्ट सात नरकों की संख्या बतला दी गई है । जिससे यमगति है, ऐसा निश्चित होता है ।