________________
३१८
प्राप्ति होती है, इस विचार के निराकरण के लिए, अधिकरण प्रारम्भ करते हैं ।
ननु अनिष्टादि कारिणामपि सोमभावः श्रूयेत । इष्टादिकारि व्यतिरिक्तानां “ये त्रैके चास्माल्लोकात् प्रयांति चंद्रमसेवते सर्वेगच्छति" इति कौषीतकिनः समामनन्ति । “अत्र चकपूयां योनिमापद्यन्ते" इति पर्यवसानम् । तेन सर्वे चन्द्र मसंगच्छन्ति, अयमाशयः । कर्माकर्मविकर्मेति त्रिविधकर्म विधायको वेदः । "अग्नि होत्रं जुहुयात् ।" यस्य वेदश्च वेदी च विच्छिद्येते त्रिपूरुषम्" "न हिंस्याद् भूतजातानि ।" ब्रह्मणादीनामपि त्रिविधकरणं संभवति । नहि सर्वोऽप्येकान्ततो विहितं वा प्रतिषिद्ध वा करोति ततोविहितकत्तु रपि त्रयसंभवाज्ज्ञानाभावेन फलभोग नैयत्यात् सोमभावानन्तरमेवाकर्म विकर्म भोगोवक्तव्यः । अत एवाविशेषोपसंहारी । तस्मात् सोमभावानन्तरमेव सर्वेषां जन्मेति प्राप्तम् ।
(पूर्वपक्ष ) पाप करने वालों को भी सोमभाव प्राप्त होता है ऐसा "और जो लोग (पापात्मा) इस लोक से जाते हैं, वे सभी चन्द्रभाव को प्राप्त करते हैं" कौषीतकि ब्राह्मण का कथन है । इस प्रकरण के अवसानम् में और भी स्पष्ट करते हैं कि “यहाँ आकर अधम योनियाँ प्राप्त करते हैं" कहने का तात्पर्य है कि वे सभी चान्द्रयसी गति प्राप्त करते हैं वेद में, कर्म अकार्म विकर्मआदि तीन प्रकार के कर्मों का वर्णन किया गया है जैसे कि कर्म " अग्निहोत्रयज्ञ करना चाहिए।" अकर्म जैसे "जिसकी तीन पीढ़ियों में वेद और वेद ज्ञाताओं का विच्छेद हो जाता है ।" विकर्म जैसे -" प्राणि मात्र की हिंसा मत करो।" ब्रह्म आदि के भी तीनों कर्म संभव हैं । कोई भी केवल शास्त्र विहित या शास्त्र निषिद्ध कर्म नहीं कर सकता । शास्त्र सम्मत कर्म करने वाले भी अनजान में अकर्म और विकर्म करते हैं, फलभोग अवश्यम्भावी है, अतः सोमभाव प्राप्ति के बाद अकर्म विकर्म अवसान भी सुकर्म के ही संमान है, कोई सबका जन्म होता है ।
भोग कहा गया है । इन दोनों का अंतर नहीं है । सोमभाव के बाद ही
संयमने त्वनुभूयेतरेषामारो हावरो हौ तदगतिदर्शनात् | ३|१|१३||
तु शब्दः पक्षं व्यावर्त्तयति । विहित व्यतिरिक्तकर्तृणां संयमने यम संनिधाने सुखं दुःखं वा अनुभूय आरोहावरोही । अनुभवार्थ मा रोहोऽनुभूयावरोहो । कुतः ? तद्गति दर्शनात् । तेषां गतिर्विसहशी दृश्यते वेदेहि प्रथमं विहिताद्वेधागतिः, सकामा निष्कामा चेति । सकामा, यथा काममनंतविद्या । निष्कामा ज्ञानरहिता