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ऐसा निश्चित होता है । यदि आध्यात्मिक आदि तीन रूपों की कल्पना न होती तो, इन वागादि की एक ही शरीर में मृत्यु के साथ समाप्ति हो जाती, शरीरान्तर इनकी स्थिति न होती । सृष्टि में, अग्नि देवता, अनेक रूप धारण करने के सामर्थ्य होने से वागुरूप हो कर जीवमात्र में प्रविष्ट हो गए। उन अग्नि आदि में जो चेतना है वह परमात्मा की अंशस्वरूप है, उनमें आनन्द छिपा हुआ है, इसलिए वे सामर्थ्यवान् हैं, कार्य के अनुसार उनकी उपलब्धि होती है ।
आध्यात्मिकाधिदैविक योरेकत्वाद् वदनादिकार्यार्थ साध्यात्मिका एव निरू पिताः । उद्गमने " एतस्माज्जायते प्राणः" इत्यादिपु वागादीनां नियमेन तत्तज्जीव सान्निध्यं स्वतश्चानिर्गमनं मृत्युरूपश्रमेणतत्रलयः पुनरुद्गमनं समष्टिव्याप्टिभावश्च नोपपद्येत् ।
आधिभौतिक कृतश्चायं भेद इत्यग्रे व्यक्ती करिष्यते एवमेव ब्रह्मणोऽपि "अनेन जीनात्मानु प्रविश्य" इत्यपि निःसंदिग्धं द्रष्टव्यम्, यदज्ञानात सर्वविप्लववादि व्यामोहः ।
आध्यात्मिक और आधिदैविक के एक होने से वदन आदि के कार्यो को आध्यात्मिक ही कहा गया है " इससे प्राण हुआ" इत्यदि उद्गमन वाक्य में, वागादि के नियम से, जीव को सानिध्य, स्वत अनिर्गमन, मृत्युरूप श्रम से उनका लय और पुनः उद्गमन तथा समष्टि व्यक्ति भाव की असंभवना बतलाई गई है। आधिभौतिक कृत भेद को आगे व्यक्त करेंगे "अनेक जीवेनात्मनान प्रविश्य" इत्यादि ब्रह्म के स्वरूप को असंदिग्ध समझना चाहिए, जिस पर अज्ञान वश, सर्व विप्लववादियो को व्यामोह होता है ।
प्राणवता शब्दात् | २|४|१५||
याधिष्ठान मग्न्यादि तत कि स्वतं एव तावत् प्राप्तम् ? स्वत एवेति पूर्वोक्त न्यायेन देवतात्व व्याधातश्चेत् ।
अन्यसहितं वेति ? संदेहः, पि तावतैव सिद्धे रनवस्थानाच्च
संशय होता है कि जो अग्न्यादि अधिष्ठान है वह स्वतंत्र है अथवा दूसरे के सहयोग से है ? विचारने पर स्वतन्त्र ही प्रतीत होता है, पूर्वोक्त नियमानुसार ऐसा ही निर्णय होता है यदि परतंत्र मानें तो अनवस्था दोष तथा देवतात्व का व्याघात होगा ।