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"एतस्माज्जायते' आदि उद्गम श्रुति तो स्तुतिपरक हैं अतएव उसे अनुवाद मात्र ही मानना चाहिए । मन आदि भौतिक ही हैं ।
वैशैष्यास्त्तु तद्वादस्तद्वादः ।२।४।२२॥
अन्नादिभिविशेष्यते, मनः प्रभृति सम्यक् कार्यक्षमं भवति । तथा दर्शनात् उपादानाच्च । अतो वैशेष्यादेव हेतोरन्नभयत्वादि वादः । ननु कथमेतदवगम्यते ? वैशेष्याद् गौणोंवाद इत्युच्यते । अथात्मनोऽन्नाद्यमागायदित्यत्र प्राण एव सर्वस्यान्न स्यात्ता निर्दिष्ट: स कथं तत्परिमाणमकार्य स्यात् । वागादयश्च तत्रान्नार्थ मनुप्रविष्टाः सृष्टौ प्रथमतो भिन्नतया निर्देशात् । अतो न भौतिकानि मन: प्रभृतीनि, किन्तु तत्त्वान्तराणीति सिद्धम् । तद्वाद इति वीप्सा अध्याय समाप्ति सूचिका ।
___ अन्न आदि भक्षण से, मन आदि विशेषरूप से बल प्राप्त करते हैं, कार्य क्षमता प्राप्त करते हैं यही त्रिवृत्करण की श्रुति का तात्पर्य है, उत्पन्न होते हैं ऐसा तात्पर्य नहीं है । अन्नमय आदि का सिद्धान्त यही है । सिद्धान्त, विशेष से गौण ही होता है। "अथात्मऽन्नाद्यभागायत" इत्यादि में प्राण को ही सभस्त अन्न का भोक्ता कहा गया है, इसलिए वह भोक्ता, अन्न आदि का परिणाम कार्य कैसे हो सकता है ? वागादि को उक्तवर्णन में अन्न के लिए अधुप्रविष्ट बतलाया गया है, सृष्टि में इनको अन्न आदि से स्पष्ट रूप से भिन्न बतलाया गया है । इसलिए मन आदि भौतिक नहीं हैं अपितु अन्नादि भिन्न तत्व हैं ।
द्वितीय अध्याय समाप्त
---:०:तृतीय अध्याय
प्रथमपाद
तदन्तर प्रतिपातौ रंहति संपरिष्वक्तः प्रश्ननिरूपणाभ्याम् ॥३॥१॥१॥
सर्वोपनिषदां सिद्धो ह्यविरोधे समन्वयः, कथं बोधकता तासां सा तृतीये विचार्यते । एकं वाक्यं प्रकरणं शाखाः सर्वा सहव वा एका विद्यामने कां वाजनयनीति चिन्त्यते । स साधनो हि पुरुष जन्मन' कर्मणा शुचौ, केवलेवा यथायोगे प्रथमं तद् विचार्यते । विचारपूर्वकं तस्य ब्रह्म भावाप्ति योग्यता, अधिकारे ततः