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पंचाग्नावेव । अन्ने प्रविष्टानामन्येषामपि रेतो द्वारा योनित उत्पत्तिरिति कपूयचरण वर्णनम् । “एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभंते' इति कामनायां भिन्न एव प्रकारः पृथगुपदेशात् । तस्माद्योग्यशरीरनिष्पत्तये स्वयमेव गच्छति भूतसहितः ।श्रद्धाहोमानन्तरं सोमभावे वा संबंध इति संशयः । भिन्नपक्षे योनौ वेति । तत्र श्रौतेऽर्थेश्रौतन्यायेनैव निर्ण यस्योचितत्वादाहुतावपां गौणत्वा पत्तेः । संस्कृतभूतानामपामुपस्थापकत्वाभावाच्छरीर वियोगे देवानां च तावद् बिलम्बे कारणांभावाच्च श्रद्धारूपा आप एव हूयन्ते, अतो न तैः परिष्वक्तो गच्छति ।
जो जीव पूर्व जन्म में निष्काम यज्ञ करते हैं, वे ज्ञानरहित होते हुए भी, मृत्यु के समय ज्ञान के अभाव से यज्ञाभिव्यक्ति रहित भूत संस्कार यज्ञ द्वारा जन्म लेते हैं । निष्काम होने से वे यज्ञाधिकारी देवताओ के अधीन रहते हैं, जैसा कि-"वे देवता उन उन स्थानो में हवन कर उसके शरीर का संपादन करते हैं, इस प्रकार वह पाँच आहुतियों द्वारा पुरुष नाम वाला होता है।" इस श्रुति से स्पष्ट होता है।
उक्त यज्ञ में जीव स्वतः तो ज्ञान रहित होने से अपने को हुत करता नहीं, देवताओं द्वारा किया जाता है, इसलिए यह कृति अशुद्ध है, इत्यादि संशय उपस्थित करते हुए, उनका भी होम होता है, इसका निर्णय करने के लिए अधिकरण प्रारम्भ करते हैं।
(पूर्वपक्ष) पंचाहुति धूममार्ग तो है नहीं, क्यो कि--उसमें गमन और आगमन का विशेष वर्णन मिलता है। "जो उसे इस प्रकार जानकर श्रद्धा और तप से उसकी उपासना करता है वो अचिरादि गति प्राप्त करता है" इत्यादि में ज्ञानवान की भी अचिरादि प्राप्ति कही गई है, वहाँ देवताओं के द्वारा आगति क्यों नहीं की जाती ? ज्ञान के लिए ही तो पंचहुत उत्पत्ति होती है । पुरुष रूप की प्राप्ति तक पुनरावृत्ति तो दोनों में समान ही होती है।
धूममार्ग का वर्णन निष्काम कर्म वाले के लिए भी हो सकता है "योगी प्राप्य निवतं ते" स्मृति वाक्य से ऐसा ही समझ में आता है। धूमादि लोक भोगार्थक ही हैं, पंचाग्नि आहुति से ही उनकी निष्पत्ति होती है । आहुति रहित अन्य जीवों का अन्न प्रवेश और वीर्य द्वारा स्त्री के गर्भ में प्रवेश कर योनि द्वारा उत्पन्न होना इत्यादि को निकृष्ट बतलाया गया है । “एवं मयी धर्म मनु प्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते'' इत्यादि में कामना का भिन्न ही प्रकार बतलाया गया