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संस्कारता के लिए नियामक होना आवश्यक है, सो तो इसमें है नहीं। तथा "अस्थि चैव तेन मांसं च यजमान संस्कुरुत" इस विधिवाक्य से विरुद्धता भी होती है। इस तर्क का निराकरण तु शब्द से करते हैं। केवल जल में ग्रहण से ही तेज, जल और पृथ्वी का ग्रहण हो जाता है, क्यों कि जल ही समस्त सृष्टि में त्यात्मक होकर व्याप्त है इसलिए जल के ग्रहण से तीनों का ग्रहण हो जाता है, जल के ग्रहण में उपलक्षण भी एक कारण है । जल परिमाण में अधिक भी है साथ ही शुद्ध भी । वह सभी में व्याप्त है, इसे प्रकरण में आगे परपपवित्र करने वाली शक्ति कहा गया है, शुद्ध होने से ही इसे जीव का शरीर कहा गया है, अनेकों जीवों का हेतु होने से इसका वाहुल्य है, यह द्रव्यों का भी विस्तार करता है, इसलिए अनेक नियामकों के स्थान पर इस जल को ही एकमात्र नियामक कहा गया है।
प्राणगतेश्च ।३।१॥३॥
वैदकों युक्तिमुक्त्वा लौकिकीमाह, प्राणस्य गतिः प्राणगतिः तमुत्कातं प्राणोऽनुत्कामतीति प्राणाप्यायनजनकत्वादपाम् । प्राणो गच्छन् स्वाप्यायकं ग्रहीत्वन गच्छन्ति । जलौकावदन्यत्र देहसंबंधः मुक्तौ न प्राणा गच्छन्ति । क्रममुक्तावपि देह संबंध इति पौराणिकाः देहभाव इत्यौपनिषदाः । अतो दूरे प्राणगतिरत्रव । अतोऽयां संश्लेषो वक्तव्यः । चकाराद् विद्याकर्मणी समन्वारमेते पूर्व प्रज्ञा चेति स्वकर्म सहभावं बोधयति श्रुतिः । तस्मादभिः परिष्वक्तो गच्छति ।
वैदिकी युक्ति बतलाकर लौकिकी युक्ति बतलाते हैं। प्राण की गति से भी जल की प्रधानता सिद्ध होती है, क्यों कि प्राण का आधार, जल ही है। प्राण जव उत्क्रमण करते हैं तो वे अपने रक्षक के साथ ही गमन करते हैं। जलीक की तरह ये प्राण, अन्यत्र देह संबंध होने पर भी जल को नहीं छोड़ते उसी के साथ जाते हैं पोराणिक लोग क्रममुक्त में देह संबंध नानते हैं, औपनिषद् देहमानते हैं सद्योमुक्ति को छोड़कर सभी में देह संबंध रहता है इसलिए प्राणगति के साथ जल का संलेष रहता है, ऐसा मानना चाहिए। "विश्राकर्मणी" आदि श्रुति स्वकर्म सहभाव बतलाती है । जल संसक्त होकर ही जीव जाता है यह मानना ठीक है।
अग्यादिगतिश्रुतेरिति चेन्न भाक्तत्वात् ।३।०४॥