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भृत्यभावेन जीवे भोगः फलिष्यति । __ अग्न्यादि का प्राण संबंध नित्य है। उनकी अधिष्ठातृता प्राण का और उसका संबंध दोनों नित्य हैं । प्राण की सहायता से ही सही वर्गों का उच्चारण होता हुआ देखा जाता है, स्वामि सेवक भाव से ये, जीव को भोग प्रदान करते हैं।
तादिन्द्रियाणितव्यपदेशादन्यत्र श्रेष्ठात् ।२।४।१७॥
इदमत्र विचार्यते, इन्द्रियाणां प्राणाधीन सर्वव्यापारत्वात् तन्नाम कपदेशाच्च, प्राणवृत्तिरूपाणीन्द्रियाणि तत्वान्तराणि वेति संशयः । तत्त्वान्तराण्येवेति सिद्धान्तः । तानि इन्द्रियाणि तत्त्वान्तराणि, कृतः ? तदव्यपदेशात इन्द्रिय शब्देन व्यपदेशात् । "एतस्माज्जायते प्राणः मनः सर्वेन्द्रियाणि च" इति भिन्न शब्दवाच्यानांक्वचिदेक शब्दवाच्यत्वेऽपि नैकत्वम् । आसन्येऽपि तर्हि भेदः स्यादित्यत आह, अन्यत्र श्रेष्ठात्, तस्यते यौगिकाः शब्दा इति ।
अब विचारते हैं कि इन्द्रियों की सारी चेष्टायें प्राणाधीन हैं और उनके नाम सुस्पष्ट उल्लेख है तो क्या इन्द्रियाँ, प्राणवृत्ति ही हैं। अथवा प्राण से भिन्नतत्त्व हैं ? सिद्धान्ततः ये प्राण से भिन्न ही तत्त्व हैं । इन्द्रिय शब्द से उनका सुस्पष्ट उल्लेख है, इसलिए भिन्न ही हैं "इससे प्राण मन और सारी इन्द्रियाँ हुई" इत्यादि । इन्द्रियाँ भिन्न भिन्न नाम वाली हैं, कहीं कहीं केवल इन्द्रिय शब्द से ही उन सबका उल्लेख कर दिया गया है, फिर भी वे एक नहीं है । प्राण में भी प्राण, अपान, उदान, व्यान, समान आदि भिन्न भिन्न नाम हैं किन्तु तत्त्वत: एक हैं, ये सारे शब्द यौगिक हैं।
भेद श्रुतेः ।२।४॥१८॥
यत्रापि प्राणशब्द प्रयोगस्तत्रापि भेदेन श्रूयते । “तमुत्क्रांतं प्राणोऽनुत्क्रामनि प्राणमन्त्क्रान्तं सर्वे प्राणा अन्त्क्रामन्ति" इति । ___जहां कहीं भी प्राणशब्द का प्रयोग किया गया है वहाँ भिन्न रूप से ही किया गया है। "उस जीव के उत्क्रमण करके वह प्राण अनुत्क्रमण करता है, प्राण के अनुक्रमण करने पर सभी प्राण अनुत्क्रमण करते हैं" इत्यादि ।
वैलक्षण्याच्च ।२।४॥१६॥
वैलक्षण्यं च प्राणस्य चेन्द्रियाणां च । सुप्तेषु वागादिषु प्राणो जाति, स्वामि सेवकवच्चानेकं वलक्षण्यम् ।