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न किन्त्वेकादश । अपान्तर गणना सूचनयाऽसंभवाभिप्राय।। अधिक संख्याऽन्तः करण भेदादिति । एकादशैवेन्द्रियाणीति । स्थितम् ।
सूत्रस्थ तु शब्द पूर्वसूत्रीय पूर्वपक्ष का निवारण करता है । हस्त आदि,, सात से अधिक हैं जैसा कि-"हाथों से ग्रहण करना चाहिए, उपस्थ आनन्द लेने के लिए है, पायु विसर्जन के लिए है, पैर गमन के लिए हैं" इत्यादि श्रुति से ज्ञात होता है। चक्ष आदि की गणना में इन चारों की भी इन्द्रिय रूप से गणना ह। देह में इनकी स्थिति होने तथा श्रुति में गणना होने से, ये चक्षु आदि के ही समान हैं। इसलिए इन्द्रियाँ सात ही नहीं हैं अपितु एकादश हैं । आठ नौ आदि संख्याओं का जो उल्लेख किया गया है वह असंभव के अभिप्राय का द्योतक है। एकादश से अधिक संख्या का जो उल्लेख है वह अन्तःकरण को जोड़कर बतलाया गया है। इन्द्रियाँ तो एकादश ही हैं
अणवश्च ।२॥४७॥
सवें प्राणा अणुपरिमाणाः, गतिमत्वेन नित्यत्वे अणुत्वमेव परिमाण प्रमाणा भावात् पुनर्वचनम् ।
सभी इन्द्रियाँ अणु परमाणु की हैं, गति और नित्यत्व से उनका ऐसा ही निश्चित होता है । वैसे परिमाण का कोई उल्लेख प्रमाण तो है नहीं, इसलिए सत्रकार ने विशेष सूत्र बना कर उसका निर्णय किया है ।
श्रेष्ठश्च ।२।४।८॥ ____ मुख्यश्च प्राणो नित्यगतिमान् अणुपरिमाणश्च । चकाराद् अतिदेशः । "नासदासीत्" इत्यत्र “आसीदवात स्वधया तदेकम् इति अननात्मकस्य पूर्वसत्ता प्रदर्शिता।
मुख्य प्राण नित्यगतिमान और अणु परिमाण का है, सूत्रस्थ चकार ऐसे ही अतिदेश कासूचक है। "नासदासीत्श्रुति आसीदवात्' इत्यादि उल्लेख अननात्मक की पूर्वसत्ता का ही प्रदर्शन कर रही है। न वायुनियये पृथगुपदेशात् ।२।४६॥
ननु मुखाः प्राणो वायुरेव भविष्यति, इन्द्रियाणां क्रिया वा? एवं हि श्रूयते "यः प्राणः स वायुः" एष वायुः पंचविधः, "प्राणोऽपानो ब्यान उदानः समान" इति । सामान्य करण वृत्तिः प्राणाद्याः वायवः पंचेति । तत्रान्तरीया आचक्षते,