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"तमुत्क्रान्तं" इत्यादि में पूर्वोक्त चक्षु आदि की तथा "अधारूपज्ञो भवति" इत्यादि से जीब की, सातों विशेष, गति बतलाई गई है । सातों की गति से जीव की ये विशेषता है कि वो सातों को एक साथ लेकर जाता है । ये सातों जीव के समान योगक्षेम करने से जीव के ही तुल्य हैं। विशेष विशेष उपाख्यानों में चक्षु आदि का देवत्व दिखलाते हुए उनके संवाद का उल्लेख है, इसलिए ये चेतन जीव के ही समान हैं।
केचिदिदं सूत्रम् उत्तरसूत्र पूर्वपक्षत्वेन योजयन्ति । तत्रायमर्थः ते प्राणाः कति ? इत्याकांक्षायां "सप्तप्राणाः प्रभवंति तस्मात् सप्ताऽर्चिषः समिधः सप्तजिह्याः "अष्टौग्रहाः अष्टावतिग्रहाः" इति, "सप्त" इति "सप्त वै शीर्षण्याः प्राणा द्वावबांचौ" इति, "नव वै पुरुषप्राणाः नाभिर्दशमी" दश वैः पशोंः प्राणा आत्मै कादश" इत्येवभादिषु नानासंख्या प्राणानांप्रतीता । तत्र श्रुतिविप्रतिषेधे कि युक्तम् ? इति संशये सप्तैवेति प्राप्तम् । कुतः ? गतेः, सप्तानामेव गतिः श्रूयते "सप्त इह लोका येषु चरन्ति प्राणां गुहाशया निहिताः सप्तसप्तेति' किं च, विशेषितत्वाच्च जीवस्योत्क्रमण समये सप्तानामेव विशेषितवस् । अन्येतु पुनरेतेषामेव वृत्तिभेदाद् भेदाः।
कोई इस सूत्र को, पूर्वपक्ष मानकर अगले सूत्र को उत्तरसूत्र के रूप में योजना करते हैं, उसमें दिखलाते हैं कि-- वे प्राण कितने हैं ? ऐसी आकांक्षा होने पर "सप्तप्राणाः" अष्टौग्रहाः "नव वै प्राणाः" दश वै पशो प्राणाः आत्मकादश" इत्यादि श्रुतियों से प्राणों के अनेक रूप ज्ञात होते हैं, श्रुतियों में परस्पर विरोध होने पर सही क्या ह ? इस संशय पर सात की ही पुष्टि होती है क्यों कि-- "सप्त' इह लोकाः" इत्यादि में सात की ही गति बतलाई गई है, जीव के उत्क्रमण के समय सातों का ही विशेषाल्लेख है, अन्य तो इन्हीं के वृत्ति मेद होने से विभिन्न संख्यक हैं।
इत्येव प्राप्ते उच्यते-इस मत पर कहते हैं---
हस्तादयस्तु स्थितेऽतो नैवम् ॥२॥४॥६॥
पूर्वसंबंधे उत्सूत्रं पूर्वपक्षः । तु शब्दः पूर्वपक्षं व्यावर्त्तयति । हस्तादयः सप्तभ्योऽधिकाः । हस्तौ चादातव्यं च, उपस्थश्चानंदयितव्यं च, पायुश्च विसर्जयितव्यं च, पादौ च गन्तव्यं चेति ।" चक्षुरादिगणनायामेतेऽपि चत्वारि इन्द्रियत्वेन गणिताः । स्थिते सति, श्रुतौगणनया चक्षुरादितुल्यत्वसनि । अतो हेतोः सप्तवेति