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द्वितीय अध्याय चतुर्थपाद
तथा प्राणः ।२।४।१॥
जीव शरीर वर्तिनां प्राणदीनां विचारार्थ पादारम्भः । तत्र जीवं निरूप्य तादृश धर्मवत्वं प्राणे अतिदिशति । प्राण शब्द प्रयोगः प्रियत्वाय प्राणा इन्द्रियाणि । मनसो मुख्यत्वादेक वचनम् । उत्क्रांतिगत्यागतीनाभित्यारभ्य, सर्वोपपत्तिरत्रातिदिष्टा, चिदंशस्यापि तिरोभाव इति पृथड़ निरूपणम् । ननु तद्गुणसारत्वादयः कथमुपदिश्यन्त इति चेत्, न, सत्यम् अस्ति तत्रापि, “ये प्राणं ब्रह्मोपासते' इति ।
जीव के शरीर में स्थित प्राण आदि के विषय में विचार करने के लिए इस पाद का प्रारंभ करते हैं । जीव का निरूपण कर चुके अब जीव के समान धर्म वाले प्राण का निरूपण करते हैं । प्राण शब्द का यहाँ इन्द्रियों के अर्थ में प्रयोग किया गया है, क्यों कि---इन्द्रियाँ प्राण के समान ही प्रिय होती हैं । इन्द्रियों में मन मुख्य है इसलिए उसी को इंगित करते हुए, एक वचन का प्रयोग किया गया है (प्राणाः न कह कर केवल प्राण कहा गया है) जीव की तरह, प्राणों की उत्क्रांति, गति आगति आदि का वर्णन करते हुए, उन सब की जीव में उपपत्ति दिखलाई गई है, तथा चिदंश का भी तिरोभाव होता है, ऐस। अलग से बतलाया गया है । प्राण की गुण सारता क्यों कही गई ? क्योंकि उसमें भी सत्य की स्थिति है, प्राण को भी ब्रह्म कहा गया है "ये प्राण ब्रह्मोपासते'' इत्यादि ।
गौण्यसंभवात् ।२।४।२।
ननु उत्क्रांत्यादिश्रुतिगौं णी भविष्यति । न, गौण्यसंभवात् सा श्रुति!णि न संभवति, एकैव श्रु तिर्जीवे मुख्या प्राणे गौणीति कथं संभवति ?
प्राणों की उत्क्रांति आदि की निरूपिका श्रुति गौणी हो ये भी नही कह सकते, वह श्रुति गौणी नहीं हो सकती, एक ही श्रुति जीव की दृष्टि से मुख्य हो, प्राण की दृष्टि से गौण हो ऐसा कैसे हो सकता हैं ?