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तर्क उपस्थित होता है कि-देह संबंध से जो विधिनिषेध की बात की वह असंगत है, जिस जन्म में जो देह मिली, उस देह को भी नित्य प्रलयानुसार बाल्य कौमार आदि रूपान्तर होते रहते हैं, कर्म करने के समय प्रथम देह का तो अभाव हो जाता है फिर ब्राह्मणत्व आदि जाति का निर्धारण कैसे हो सकता है ? यदि कहें कि-रूपान्तर होने से क्या होता है, जीव तो एक है, तो ये बात तो एक देह को छोड़कर दूसरे देह को प्राप्त करने पर भी हो सकती है। ___ इस तर्क पर “असंतते" आदि सूत्र प्रस्तुत किया जाता है, कहते हैं कि, देहान्तर में संतति अर्थात् एक क्रम नहीं होता, बाल्यादि रूपान्तरों में एक क्रम रहता है, इसलिए कर्मों का सांकर्म नहीं होता।
अभास एव च ।२।३॥५०॥
ननु सच्चिदानंदस्य ब्रह्मणोंऽशः सच्चिदानंद एव भवेदतः कथं प्रवाहे प्रवेशो भगवतश्च सर्वकार्याणि ? तत्राहअभास एव जीवः । आनंदांशस्य तिरोहितत्वात्, चकारांदाकारस्याप्यभावः । नतु सर्वथा प्रतिबिम्बवन् मिथ्यात्वं, जलचंद्रवदित्येकस्यानेकत्वे दृष्टान्तः । तथा सत्यध्यासश्च स्वस्य न स्यात् । तंत्र वृत्यादि दोष प्रसंगश्च । अतो न मिथ्यात्वरूप आभासोऽत्र विवाक्षितः ।
युनः तर्क प्रस्तुत किया जाता है कि सच्चिदानंद ब्रह्म का अंश तो सच्चिदानंद ही होगा, ये सारा जड़ जगत भगवान् का कार्य कैसे हो सकता है ? जगत तो मिथ्या ही है। इसका उत्तर देते हैं कि-जीव, सच्चिदानंद ब्रह्म का आभास है, सच्चिदानंद नहीं, उसमें आनंदांश छिपा हुआ रहता है तथा चतुर्भुज आदि भगवदाकार भी उसमें नहीं होगा। यह आभास वैसा ही है जैसे कि अनाचारी ब्राह्मण में, ब्राह्मणाभास रहता है, यज्ञोपवीत धारण करते हुए भी, ब्राह्मण नामक देवता का तिरोभाव रहता है। जीव और जड़ दोनों की यही स्थिति है। ये जगत प्रतिबिम्ब की तरह सर्वथा मिथ्या नहीं है, जैसा कि मायावादी एक एक चन्द्र का अनेक जलाशयों में प्रतिबिम्ब वाला दृष्टान्त उपस्थित करके प्रतिबिम्ब की तरह मिथ्या बतलाते है । यदि ये मिथ्या है तो उसमें अध्यास नहीं हो सकता, मिथ्या वस्तु में अध्यास की बात क्यों की जाती है ? दूसरी बात ये है कि मिथ्या मानने से "द्वासुपर्णा" आदि श्रुति से भी विरुद्धता होती है। इसलिए इस सूत्र में मिथ्या रूप आभास विवक्षित नहीं है, जैसा कि मायावादी अर्थ करते हैं।
अदृष्टानियमात् ॥२॥३॥५१॥ इशित्वाय नैयायिकाद्यभिमतं जीवरूपं निराकरोति । नानात्मानो व्यवस्थात