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इति भोगव्यवस्था जीवनानात्वमंगीकृतम् । तत्रादृष्टस्य नियामकत्वं तन्मते सिद्धम् । देशान्तरवस्तूत्पत्त्यन्यथानुपपत्त्या व्यापकत्वं चांगीकृतम् ।
एवं च क्रियमाणे मूल एव कुठारः स्यात् । सर्वेषामेवजीवानामेकशरीर संबंधात् कस्याहरु तद् भवेत् ? न च मिथ्या ज्ञानेन ब्यवस्था, तत्रापि तथा । न चानुपपत्त्या परिकल्पनम् श्रुत्यैवोपपत्ते : एतेन विरोधात् ऋषि प्रामाण्यमपि निराकृतम् ।
अब हम ईश नियामक है ऐसा मानने बाले नैय्याचिकों के अभिमत जीव स्वरूप का निराकरण करते हैं । वे लोग अनेकता के सिद्धान्त को मानते हैं, और जीवों की अनेक भोग व्यवस्था भी स्वीकारते हैं। साथ ही अदृष्ट देव को उसका नियामक कहते हैं तथा देशान्तर भावी वस्तु भी देव वश है क्योंकि अदृष्ट देव वहाँ भी व्यापक है, इस दृष्टि से जीव को भी विभु मानते हैं। ऐसा मत स्वीकारना तो मूल पर ही कुठाराघात करना है । जब सभी जीव एक हैं तो किस शरीर के जीव का अदृष्ट नियामक कहा जावेगा? मिथ्याज्ञान से तो व्यवस्था होगी नहीं, समस्या ज्यों की त्यों बनी रहेगी । अनुपपत्ति की परिकल्पना तो कर नहीं सकते, क्योंकि-श्रुति में से ही वह उपपन्न है। ऐसा करने से ऋषि प्रामाप्य भी निराकृत होगा।
अभिसंभ्यादिष्वपि चैवम् ॥२॥३॥५२॥
ननु मनः प्रभृतीनां नियामकत्वात् तेजाभीश्वरेच्छया नियतत्यान्न दोष इति चेन्न । पूर्ववदेव दोष प्रसक्ति : । तादृशेश्वर कल्पना च पूर्वमेव निराकृता । ... यदि कहें कि मन आदि का नियामक भी अदृष्ट ही है, वे भी ईश्वरेच्छा से नियत हैं, इसलिए उक्त दोष घटिक नहीं होगा; सो बचाव भी नहीं कर सकते, दोष तो वैसा का वैसा ही होगा, वैसे ईश्वर की कल्पना तो पहिले ही निराकृत हो चुकी है।
प्रदेशादिति चेन्नान्तर्भावात् ।२।३॥५३॥
आत्मनो विभुत्वेऽपि प्रदेशर्भदेन व्यवस्था, आत्मनि तादृशः प्रदेश विशेषोऽस्ति येन सर्वभुपपद्यत इति चेन्न, अन्यस्मापि प्रदेशस्तत्रान्तर्भवति, तस्यैव वा देहस्य देशान्तरगमने पूर्व देशस्य त्यक्तत्वात् सोंऽशोऽन्तर्भवेत् तिरोभवेदिति ।
द्वितीय अध्याय का तृतीय पाद समाप्त ।