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सम्भावना नहीं है, तो फिर वह कर्म से आबद्ध कैसे हो सकता है, और फिर फल से भी कैसे बद्ध हो सकता है ? जीव वस्तु तो एक ही है, अनेक देहों से सम्बद्ध होने से शूद्र और पत्नी आदि भेद क्यों किये जाते हैं ? वस्तुतः तो ऐसा हो नहीं सकता । कर्म मार्ग ही अर्थात् 'विधि निषेध की व्यवस्था ही जब भगवदंश में संभव नहीं तो फलस्वरूप दुःख प्राप्ति भी कैसे संभव है ? इसका परिहार करते हैं
अनुज्ञा परिहारो विधिनिषेधौ जीवस्य देह संबंद्वात्, यो देहो यदा गृहीतस्तस्कृतौ । यथा शवाग्निश्चांडाल भाँडस्थमुदकं तद् घटादिश्च परिहियते, एव मुत्कृष्टं परिगृह्यते, तथा जीवेऽपि देह संबन्धकृतः । संबन्धश्चाध्यासिको भगवत्कृतश्च । अध्यासिको हि ज्ञानान्निवर्तते। द्वितीयो भगवतैव । जीवन्मुक्तानामपि व्यवहारदर्शनात् श्रुतिस्तु भगवत्कृत संबंधमेवाश्रित्याग्नि होवादिकं विधत्ते । अन्यथा विद्यां स्व ज्ञानं च बोधयंती कर्माणि न विदध्यात् । शब्द ज्ञानस्य पूर्वमेव सिद्धत्वात् । कथं सिद्धवद् यावज्जीवं विदध्यात् । न्यासोऽपि देह संबंध एव ।
कहते हैं कि विधि और निषेध, जीव के देह के संबन्ध से होते हैं, जो देह जिस समय मिलता है उसके अनुसार होते हैं। जैसे कि-शव की अग्नि और चांडाल के पात्र का जल अशुद्ध और अग्राह्य होता है तथा श्रेष्ठ स्थान और व्यक्ति के पात्र का शुद्ध और ग्राह्य होता है, वैसे ही जीव के देह संबंध से विधि निषेध का नियम है। ये देह संबंध भी आध्यात्मिक और भगवत्कृत है । अध्यास तो ज्ञान से निवृत्त हो जाता है किन्तु संबंध भगवत्कृपा से ही छूटता है । अध्यास रहित जीव-मुक्तों में भी देह संबंध का व्यवहार तो होता ही है। श्रुति ने, भगवत्कृत संबंध के आधार पर ही अग्नि होत्र आदि विधियों का विधान किया है। अन्यथा विद्या और परमात्मज्ञान का उपदेश करने वाली श्रुति कर्म विधि का व्याख्यान न करती । शब्द ज्ञान की सिद्धि तो अध्ययन द्वारा ही हो जाती है, फिर उसकी विधि जीव के लिए की जाय इसका प्रश्न तो उठता ही नहीं। इस लिए कर्म संन्यास की विधि है, वह भी देह संबंध से ही है।
असंततेश्चाव्यतिकरः ॥२॥३॥४६॥
ननुदेहस्यापि बाल्य कौमारादिभेदात् कथं कर्म काले ब्राह्मणत्वादि, जीवैक्यादिति चेत् देहान्तरेऽपि स्यादिति, तत्राह देहान्तरे सन्ततिरपिनास्ति । बाल्यादि भेदे पुनः संततिरेका । अतः संततिभेदान्न कर्मणां सांकमिति ।