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"स्वयं विहृत्य स्वयं निर्माय स्वेन भासा स्वेन ज्योतिषा प्रस्वपति" इति स्वशब्दोऽणु परिमाणं जीवं बोधयति । नहि स्वप्ने व्यापकस्य वा शरीर परिमाणस्य वा विहरणं संभवति। "बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पित स्यतु भागोजीवः स विज्ञयः" इति । आराममात्रो ह्यपरोऽपि दृष्ट इति चोन्मानं, चकारात् स्वप्नप्रबोधयोः संधावातिदर्शनम्। ___ "स्वयं विहृत्य स्वयं निर्माय" आदि श्रुति का स्व शब्द के अणु परिमाण को बतलाता है। स्वप्नावस्था की बोधक यह श्रुति है, स्वप्न में व्यापक या शरीर परिमाण वाले जीव का विहरण संभव नहीं है। "बालानशतभागस्य" इत्यादि श्रुति भी जीव की सूक्ष्मता को बतलाती है। उक्त वर्णन स्वप्न और जागृति की संधि का है।
अविरोधश्चन्दनवत् ।२।३।२३॥
अणुत्वे सर्वशरीरंब्यापि चैतन्यं न घटत इति विरोधो न भवति चन्दनवत्, यथा चन्दनमेकदेशास्थितं सर्व देह सुखं करोति । महातप्त तैलास्थितं वातापनिवृत्तिम् ।
जीव यदि अणु है तो समस्त शरीर में चैतन्यता कैसे है ? ऐसा संशय भी नहीं किया जा सकता, जैसे कि शरीर के किसी एक स्थान में स्थित चंदन सारे शरीर को सुखकर प्रतीत होता है वैसे ही स्थान विशेष में स्थित चैतन्य जीव समस्त शरीर को चैतन्य रखता है । खौलते हुए तेल में भी चन्दन की एक बूंद पड़ जाने पर तेल की गर्मी शान्त हो जाती है, वही स्थिति जीव की है।
अवस्थिति वैशेष्यादिति चेन्नाभ्युपगमाद्धृदिहि ।२।३।२४॥
चन्दने अवस्थिति वैशेष्यम् अनुपहतत्वचि सम्यक्तया अवस्थानं तस्मात् । त्वच एकत्वात् तत्र भवतु नाम, न तु प्रकृते तथा संभवतीतिचेन्न । अभ्युपगमात्, अभ्युपगम्यते जीवस्यापि स्थान विशेषः, हृदि हि, हृदि जीवस्य स्थितिः गुहां प्रविष्टाविति हि युक्तिः।
प्रतिपक्षी तर्क प्रस्तुत करते हैं कि--उक्त दृष्टान्त असंगत है, चंदन की स्थिति तो त्वचा के किसी स्थान विशेष में है त्वचा है तो एक ही उसका सबसे संबंध है, जीव के लिए तो ऐसा नहीं कह सकते । ये तर्क भी ठीक नहीं, जीव भी एक ही शरीर के स्थान विशेष में रहता है, हृदय में जीव की स्थिति रहती है “गुहांप्रविष्टौ" इत्यादि में इसका स्पष्ट उल्लेख है ।