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परिहार किया। उसके बाद जीव के अणुत्व, औपचारिक ब्रह्मत्व, अंशत्व! पराधीनकत्त त्व आदि का प्रतिपादन करके, दक्षिणमार्ग से जीवपुनरावृत्ति तथा भक्ति साधन युक्त ब्रह्मज्ञान से, अचिरादि मार्ग से ब्रह्म प्राप्ति बतला कर "न स पुनरावर्तते" इस अंतिम सूत्र से जीव की अनावृत्ति बतला कर समस्त उपनिषद वाक्यों का सुष्ठु समाधान करते हुए संकलन किया है। ___ तत्र कश्चित् तद्व्यपदेशेन प्रोक्तानि तत्त्वमस्यादि वाक्यानि स्वीकृत्य, जीव मात्र च ब्रह्म स्वीकृत्य, तदतिरिक्तस्य सर्वस्य कारणांशकार्यरूपस्य मिथ्यात्वं परिकल्प्य तद्बोधक श्रुतीनां अर्थवादत्वेन मिथ्यात्वं स्वीकृत्य सुषुप्ति संपत्त्योभगवता प्रकटीकृतमानंदरूपत्वं तत्प्रतिपादक वाक्यानां सद्योमुक्तिरूप फलवाचकत्व मुक्तवा क्रममुक्तिमुपासना परत्वेन योजयित्वा वेदसूत्राणि व्याकुली चकार ।।
तद्वेदान्तानां ब्रह्मपरत्वं जीवपरत्वं वेति यदत्र युक्त तत् सद्भिरनु संधेयम् ।
इन्हीं सूत्रों के आधार पर किन्हीं महोदय (शंकराचार्य) ने ब्रह्म सम्बन्धी तत्त्वमसि आदि वाक्यों को अपना अभिप्रेत मानकर जीव मात्र को ब्रह्म मानते हए, उसके अतिरिक्त कारणांशरूप समस्त कार्यजगत को मिथ्या बतलाकर, कार्य प्रतिपादक श्रुतियों को अर्थवाद रूप से मिथ्या मानकर, सुषुप्ति और संपत्ति में भगवान की प्रकट आनंद रूपता के प्रतिपादक वाक्यों की सद्योमुक्ति रूप फलवाचकता बतलाकर, उपासना परक क्रममुक्ति की योजना करके, समस्त वेद सूत्रों को अस्तव्यस्त कर दिया।
अब सज्जनों को ये अनुसंधान करना है कि-वेदान्त वाक्य ब्रह्म परक हैं या जीवपरक ?
यावदात्मभावित्वाच्च ना दोषस्तद्दर्शनात् ॥२॥३॥३०॥
ननु कथमन्यस्य नीचस्य सर्वोत्कृष्ट व्यपदेशोऽपि नहि प्रामाणिकैः सर्वथा अयुक्त व्यपदेशः क्रियते । न चोक्त तद्गुण सारत्वाद् ब्रह्मण आनंदांशस्य प्राकट्यादिति वाच्यम् । तथासति प्राज्ञवत् पुनस्तिरोहितं स्यादिति तस्य तद्व्यपदेशो व्यर्थोऽयुक्तश्चेति चेत्, नायं दोषः, कुतः ? यावदात्म भावित्वात् । पश्चात् यावत् पर्यन्तमात्मा, नित्यत्वात्, सर्वदा आनंदांशस्य प्राकट्यात्, तस्य तथैव दर्शनमस्ति, अनावृतश्वर्यादीनामुक्तत्वात् । प्राज्ञात् चकारात् तस्य चानंद: प्रकटित इति न 'दूषण गंधोऽपि।