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कर्मणोदूराद् गंधो वातीति । अन्यथा कल्पना त्वयुक्तत्यवोचाम् । ___ सिद्ध दृष्टान्त देते हैं कि जैसे चम्पक आदि पुष्पों की गंध चंपक वृक्ष के निकटस्थ सभी ओर फैलती है, वैसे ही पुण्य कर्म के प्रभाव से जीव की गंध चतुर्दिक फैलती है, यदि ऐसा नहीं है तो जीव के अस्तित्व की कल्पना ही व्यर्थ है।
तथा च दर्शयति ।२।३॥२७॥
हृदयायतनत्वमणुपरिमाणत्वंचात्मनोऽभिधाय तस्यैवालोमभ्य आनरवा ग्रेभ्य इति चैतन्येन गुणेन समस्त शरीर व्यापित्वं दर्शयति ।
श्रुति में जीव का हृदयायतनत्व और अणुपरमाणत्व बतलाकर "आलोमभ्य अनारवाग्रेभ्य" इत्यादि में चैतन्य गुण बतलाते हुए उसकी समस्त शरीर में व्यापकता बतलाई गई है।
पृथगुपदेशात् ।।३।२८॥ प्रज्ञया शरीरं समारुह्य ति करणत्वेन पृथगुपदेशात् चेतन्यं गुणः ।
"प्रज्ञया शरीरं समारुह्य" इत्यादि श्रुति में जीव को शरीर से भिन्न बतलाया गया है जिससे उसके चैतन्य गुण का निर्णय होता है।
तद्गुण सारत्वात्त तद्व्यपदेशः प्राज्ञवत् ।२।३।२९॥
ननु तत्वमस्मादि वाक्यैः परमेव ब्रह्म जीव इति कथमणुत्वमितीमामाशंकां निराकरोति तु शब्दः । तस्य ब्रह्मणो गुणाप्रज्ञाद्रष्ट्त्वादयस्त एवात्र जीवे सारा इति जडवलक्षण्य कारिण इति अमात्ये राजपद प्रयोगवज्जीवे भगवद्व्यपदेशः। मैत्र यीति संपूर्णे ब्राह्मणे भगवत्वेन जीव उक्तः ।
तत्वमसि आदि वाक्य तो परब्रह्म को ही जीव बतलाते हैं फिर वह अणु कैसे हो सकता है ? इस आशंका का निराकरण सूत्रकार तु शब्द से करते हैं। कहते हैं कि-ब्रह्म के जो प्रज्ञा दृष्ट्त्व आदि गुण हैं, वे ही जीव में उसकी विशेषता के परिचायक हैं, इन्हीं गुणों के कारण जीव, जड़ से विलक्षण सिद्ध होता है। जैसे कि मंत्री को भी लोक में राजा कह दिया जाता है वैसे ही, जीव को ब्रह्म कहा गया है । संपूर्ण मैत्रेयी ब्राह्मण में जीव का भगवद्रूप से वर्णन किया गया है।