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व्यपदेशो "विज्ञानं यज्ञ तनुते कर्माणि तनुतेऽपि च" इति । अत्र सांख्ये बुद्धयादीनामेव कर्तृत्वं न जीवस्येति, क्रियायां यागादिकर्मसु, न तु भोगे। जीवस्य कर्तृत्वं न चेत् । न तथा सति निर्देशस्य विपर्ययो भवेत "विज्ञानेन विज्ञानमादाय” इति श्रुत्यनुरोधात् प्रकृतेऽपि तृतीयान्तता आपद्येत ।
शास्त्र में व्यपदेश है कि-"विज्ञानं यज्ञ तनुते" इसके अनुसार तो सांख्यमत सम्मत बुद्धि आदि का कर्तृत्व प्रतीत होता है जीव का नहीं, यागादि कर्मों में ही कर्तृत्व कहा गया है भोग कर्मों में नहीं। इसलिए जीव का कर्तृत्व नहीं है। विपक्षियों का ये कथन भी असंगत है, ऐसा मानने से उक्त निर्देश से उलटा हो जायगा तथा "विलानेन विज्ञानमादाय" श्रुति से भी विरुद्धता होगी। "विज्ञान" में जो प्रथमा विभक्ति है वह तो जीव का कर्तृत्व ही बतला रही है यदि ऐसा नहीं होता तो "विज्ञानेन" ऐसा तृतीया विभक्ति का प्रयोग ब्रिया जाता।
अथ स्व व्यापारे कर्तृत्वं, तथापि पूर्व निर्देशस्य विज्ञानमयस्य विपर्ययः स्यात्, विकारित्वं स्यात् । तच्चासंगतम् व्यच्त्वात् । विज्ञानमादाचेत्यत्र विपर्यय एव एकस्य प्रदेशभेदेनार्थ भेदोऽपि । भगवति सर्वे शब्दाः स्वभावत एव प्रवर्तन्ते औपचारिकत्व ज्ञापका भावात् । यज्ञो जायमान इति श्रद्धादीनां शिरस्त्वादिः । तस्माद् विज्ञानमयः जीव एव । जडस्य स्वातन्त्र्याभावान्न कर्तृत्वम् । ___ "स्थालीपचति" काष्ठानि पचन्ति" इत्यादि की तरह स्वव्यापार कर्तृत्व मानकर बुद्धि का कर्तृत्व मानें तो भी पूर्व निर्दिष्ट विज्ञानमय के विपरीत होगा, विज्ञानमय को बुद्धि मानने से विकृत अर्थ होता, विकृत वस्तु कर्ता हो, ये असंगत बात है। त्यच् मानने पर ही विज्ञानमय बुद्धि अर्थ हो सकता है, किन्तु वेद में "द्वयच्छंदसि" नियम है। "विज्ञानमादाय" इत्यादि में भी विपर्यय होगा; एक ही वस्तु के प्रदेश भेद होने से अर्थ भेद भी हो जाता है । केवल भगवान में ही सारे शब्दों का समन्वय हो सकता है औरों में ऐसा संभव नहीं है। “यज्ञो जायमान" इत्यादि में जो श्रद्धा आदि की शिर आदि रूपों से कल्पना की गई है वह विकृत वस्तुपरक नहीं हो सकती । इसलिए यही निश्चित होता है कि जीव ही विज्ञानमय है। जड़वस्तु परतन्त्र है, इसलिए वह कर्ता नहीं हो सकती।
उपलब्धिवदनियमः ॥२॥३॥३७॥ ननु जीवस्य कर्तृत्वे हिताकरणादि दोष प्रसक्तिरितिचेत् न उप