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सी करता है" ये प्रयोग, परमात्मा के अनुकरण से, जीव के लिए होते हैं । भी एक विशेषता है, जीव के स्वसामर्थ्य के उदाहरण हैं । स्वाप्यय और संपत्ति ब्रह्मव्यपदेश को लक्ष्य बनाकर, हर जगह अड़ंगा लगाने वालों का ये मत भी उपेक्ष्य है ।
यथा च तक्षोभयथा | २|३|४० ॥
ननुकर्मकारिणां कर्तृत्व भोक्तृत्व भेदो दृश्यते तत् कर्त्तृत्वभक्त त्वयोर्भेदो भविष्यतीति चेत्, न, यथा तक्षा रथं निर्माय तत्रारूढो विहरति पीठं वा । स्वतो वा न व्याप्रियते वाश्यादि द्वारेण वा । चकारादन्येऽपि स्वार्थ कर्तारः । अन्यार्थमपि करोतीति चेत् तथा प्रकृतेऽपि । सर्वहितार्थं प्रयतमानत्वात् । न च कर्त्तुं त्वमात्रं दुःस्वरूपं, पयः पानादे सुखरूपत्वार्त । तथा च स्वार्थपरार्थ कर्तृत्वं कारयितृत्वं च सिद्धम् ।
कर्म करने वालों में कर्तृत्व भोक्तृत्व का भेद दीखता है, इसलिए कर्तृत्व भोक्तृत्व का भेद होगा ऐसा भी नहीं कह सकते, जैसे कि बढ़ई रथ बना कर उस पर बैठकर घूमता है, या पीठिका बनाकर बैठता है वैसे ही कर्त्ता भोक्ता भी हो सकता है । वह स्वतः न बना कर औजारों से बनाता है, बात एक ही है । वह अपने लिए कर्ता है, परमात्मा औरों के लिए कर्ता है, वह उसका अपना ही है । संसार में भी तो लोग अपना मानकर दूसरों का कार्य करते हैं । सभी कर्म दुःखद हों सो बात तो है नहीं, दूध पीना आदि अनेकों सुखद कर्म भी हैं । इसलिए परमात्मा का स्वार्थ परार्थ कर्तृत्व और कारयितृ दोनों ही सिद्ध हैं ।
परात तच्छ्रुतेः ॥२३॥४१॥
कर्त्तृ त्वं ब्रह्मगतमेव, तत्संबंधादेव जीवे कर्तृत्वं तदंशत्वादैश्वर्यादिवत्, न तु जडगतमिति । अतो, नान्योऽतोऽस्तीति सर्वकर्तृत्वं घटते । कुत एतत् ? तच्छ्रुतेः तस्यैव कर्त्तुं त्वकारयितृत्वश्रवणात् । यमधो निनीषति तमसाधु कारयतीति, सर्वकर्त्ता सर्वभोक्ता सर्व नियन्तेति । सर्वरूपत्वान्न भगवतिदोषः ।
कर्तृत्व ब्रह्मगत ही है, उनके संबंध से ही जीव में कर्तृत्व है, उनका अंश होने से जैसे उसे ब्रह्म का सा ऐश्वर्य प्राप्त होता है, वैसे ही कर्तृ त्व भी । कर्त्तृत्व जड़ का नहीं है । जब कोई दूसरा कर्त्ता नहीं है तो ब्रह्म ही कर्त्ता है समस्त कर्तृत्व और कारयितृ का वर्णन मिलता है ।" जिसको नीचे गिराना चाहता है उससे असाधु कर्म कराता है" इत्यादि से निश्चित होता है कि वही सर्वकर्त्ता,