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लब्धिवनियमः । यथा चक्षुषेष्टमनिष्टं चोपलभते, एवमिन्द्रियैः कर्मकुर्वन्निष्ट मनिष्टं वा प्राप्नोति ।
जीव का कर्तृत्व स्वीकारने से उसमें हिताकरणादि दोष लगते हों सो भी बात नहीं है जैसे कि नेत्र से इष्ट अनिष्ट सभी कुछ देखे जाते हैं वैसे ही इन्द्रियों से कर्म करते हुए इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति होती है ।
शक्तिविपर्ययात | २|३३८॥
नन्वीश्वरवत् स्वार्थमन्यथा न कुर्यादिति चेत्, शक्तिविपर्ययात्, तथा सामभावात् । इतएव दैवादहितमपि करोति ।
जीव ईश्वर की तरह स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ और न करे सो भी बात नहीं है, उसमें इतना सामर्थ्य ही नहीं है, जीव तो देवात् प्रायः अपना अहित ही करता है ।
समाध्यभावाच्च ॥२३॥३६॥
जीवस्य क्रिया ज्ञान शक्ति: योगेन सिद्धयतः । समाध्य भावाच्छक्तयभाव इत्यर्थः । चकारात् तादृशमंत्राभावोऽपि ।
जीव की क्रिया और ज्ञान शक्ति स्वतः सिद्ध नहीं है, योग से सिद्ध होती है, क्योंकि उसमें सामर्थ्य का अभाव , वैसा कोई मंत्र भी नहीं है जिससे ये शक्तियाँ सिद्ध हो सकें ।
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सहज वे अनिर्मोक्षः । पराधीन कतृत्व एवैतदिति सांख्यस्य तन्मतानुसारिणो वान्यस्य भ्रम एव कर्त्तृत्वे न मुक्ति रिति नपुंसक एवमुच्येतेति वाह्यवत् । निरिन्द्रियस्यैव समाधिरित्यपि करणत्वेन बुद्धिवन वेनापि दृश्यते । तस्म ज्जीवस्य स्वाभाविकं कर्तृत्वम् ध्यायतीव लेलायतीवेत्यपि परधर्मानुकरणम् । अयमप्येकोधर्मः स्वाप्ययसंपत्ययोव्रं ह्यव्यपदेशं पुरस्कृत्य सर्वविप्लवं वदन्नुपेक्ष्यः ।
जीव का सहज कर्तृत्व मानने से, उसका कभी मोक्ष ही नहीं होगा, ऐसी भी संभावना नहीं है, पराधीन कर्तृ त्व में ही ऐसी संभावना हो सकती है, सहजकर्तृत्व में नहीं । सांख्य या उनके मतानुसार चलने वाले या अन्य लोगों का ऐसा भ्रम है । कर्त्तृत्व से मुक्ति न हो सके ऐसा तो नपुंसक के लिए ही कह सकते हैं । इन्द्रिय रात जड़ ही कत्तृत्व हीन हो सकता है, जिसमें इन्द्रियाँ और बुद्धि है, वह तो कर ही सकता है, वह किसी से भी रोका नहीं जा सकता । इसलिए जीव का स्वाभाविक कर्तृत्व है, यही मत सही है । "ध्यान सा करता है, पीला