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सर्वभोक्ता और सर्वनियन्ता है। सारा विश्व ही भगवान का रूप है, इसलिए किसी प्रकार का दोष उनमें घटित नहीं होता।
कृतप्रयत्नापेक्षस्तु विहित प्रतिषिद्धावयर्थ्यादिभ्यः ॥२॥३॥४२॥
ननु वैषम्य नै घृण्ययोर्न परिहारः । अनादित्वेन स्वस्यैव कारयितृत्वादितिपक्ष तु शब्दो निवारयति । प्रयत्न पर्यन्तं जीवकृत्यं , अग्रे तस्याशक्यत्वात् स्वयमेव कारयति । यथा बालं पुत्रं यतमानं पदार्थगुणदोषौ वर्ण यन्नपि तत्प्रयत्नाभिनिवेशं दृष्ट्वा तथैव कारयति । सर्वत्र तत् कारणत्वाय तदानीं फलदातृत्वे या इच्छा तामेवानुवदति । उन्निनीषति अधोनिनीतीति । अन्यथा विहित प्रतिषिद्धयोर्वैयर्थ्यापत्तेः, अप्रामाणिकत्वं च । फलदाने कर्मापेक्षः, कर्मकारणे प्रयत्नापेक्षः, प्रयत्ने कामापेक्षः, कामे प्रवाहापेक्षः इति मर्यादारक्षार्थ वेदं चकार । ततो न ब्रह्मणि दोषगंधोऽपि । न चानीश्वरत्वम् । मर्यादा मार्गस्य तथैव निर्माणात् । यत्रान्यथा स पुष्टिमध्य इति ।
जब अनादि काल से परमात्मा ही शुभाशुभ कर्म कराते हैं तो विषमता और निर्दयता दोष उनमें घटित होंगे ही, सूत्रस्थ " शब्द इस संशव का निवारण करता है। कहते हैं कि-प्रयास करना तक ही जीव का वश है आगे उसके वश की बात नहों उसे परमात्मा ही करवाते हैं, जैसे कि प्रयास करते हुए बच्चे को पिता पदार्थों के गुण दोष बतलाते हुए, उसके प्रयास के अनुरूप उससे कार्य कराते हैं । शास्त्र में सर्वत्र परमात्मा को ही कारण बतलाने के लिए, उनकी फलप्रदानता की इच्छा का वर्णन किया गया है। वही जीव को ऊपर उठाते और नीचे गिराते हैं यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो, शास्त्रों के विधिनिषेधात्मक वाक्यों की व्यर्थता सिद्ध होगी और वे अप्रमाणिक हो जावेंगे । फलदान में कर्म अपेक्षित हैं, कर्म करने में प्रयत्न अपेक्षित है, प्रयत्न में इच्छाशक्ति अपेक्षित है, इच्छा में स्वभावापेक्ष होती है इस नियम को ही वेद में दिखलाया गया है। इसलिए जिन दोषों की संभावना ब्रह्म के लिए की गई है, उनकी गंध भी उनमें संभव नहीं है। और न उनकी अनीस्वरता ही सिद्ध होती है । मर्यादा मार्ग का ६.कार का निर्माण उन्होंने किया है। इस मार्ग में आरूढ़ व्यक्ति को ही पुष्टि प्राप्त होती है (भगवत्कृपण प्राप्त होती है)
अंशो नानाव्यपदेशावन्यथा चापि दाशकितवादित्वमधीयतएके ॥२॥३॥४३॥
जीवस्य ब्रह्मसंबंधिरूपमुच्यते । जीवो नाम ब्रह्मणोऽशः, कुतः ? नानाव्यपदेशात् "सर्वएवात्मानो व्युच्चरन्ति कपूयचरणा रमणीयचरणा" इतिच ।