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जैसे कि बाल्यकाल में पुंस्त्व छिपा रहता है यौवन में स्वतः प्रकाशित हो जाता है, वैसे ही परमात्मा का आनंदांश जीव में विद्यमान मुक्त दशा में प्रकाशित हो जाता है।
नित्योपलब्धि अनुपलब्धि प्रसंगोऽन्यतरनियमोवाऽन्यथा ॥२॥३॥३२॥
ननु कथमेवं स्वीक्रियते, इदानी संसारावस्थायां सच्चित प्राकट्यमेव । मोक्षे त्वानंदांशोऽपि प्रकट इति, तन्निवारयति । तथासति नित्यमुपलब्धिः स्यादानंदांशस्य । तथासति संसारावस्थोपपद्येत । अथानुपलब्धिः सर्वदा तथा सति मोक्षदशा विरुद्धयेत । अथान्यतर नियमः । जीवो निरानंद एव, ब्रह्म त्वानंदरूपम् । तथा सति "ब्रह्म व सन् ब्रह्माप्येतीति श्रुति विरोधः । तस्मात् पूर्वोक्त एव प्रकारः स्वीकर्तव्य इति सिद्धम ।
जीव में आनंदांश रहता है, ऐसा क्यों मानते हो ? ये क्यों नहीं मानते कि संसार दशा में सत्चित् प्रकट रहता है, मोक्षदशा में आनंदांश भी प्रकट हो जाता है । इसका निवारण करते हैं कि ऐसा मानने से आनंदांश की नित्य उपलब्धि होगी, तथा संसार अवस्था भी बनी रहेगी। यदि सदा उपलब्धि नहीं मानें तो मोक्षदशा के विरुद्ध हो जाय । इसलिए दूसरा नियम मानना होगा कि जीव आनंद रहित है और ब्रह्म आनंदरूप है, परन्तु ऐसा मानने से "ब्रह्म व सन् ब्रह्माप्येति" इस श्रुति से विरोध होगा, इसविए पूर्वोक्त प्रकार स्वीकारना ही ठीक है।
कर्ता शास्त्रार्थवत्वात् ॥२॥३॥३३॥ सांख्यानां प्रकृतिगतमेव कर्तृत्वमिति, तन्निवारणार्थमधिकरणारम्भः।
कर्ता जीव.एव, कुतः ? शास्त्रार्थवत्वात्, जीवमेवाधिकृत्य वेदे अभ्युदयनिः श्रेयसफलार्थं सर्वाणि कर्माणि विहितानि ब्रह्मणोऽनुपयोगात, जडस्याशक्यत्वात्, संदिग्धेऽपि तथैवांगी कर्तव्यम् ।
सांख्यमत, प्रकृति को कर्ता मानता है। उसका निवारण करने के लिए अधिकरण का प्रारंभ करते हैं।
कहते हैं कि-कर्ता जीव है, शास्त्र में जीव को ही कर्ता मानकर अभ्युदय और निःश्रेयस फलावाप्ति के लिए समस्त कर्मों का विथान किया गया है, ब्रह्म का उसमें कोई उपयोग नहीं है। संदेह होने पर भी उक्त मत माना ही ठीक है।
विहारोपदेशात् ।३।३॥३४॥