________________
२७६ व्यपदेशो वा नात्यन्तमयुक्तस्य, यावदात्मा ब्रह्म भवत्यानंदांश प्राकट्येन तावदेव तद्व्यपदेशः, राज्य ज्येष्ठ पुत्रवत्, एतदेवोक्तम्
"व्यापकत्व श्रुतिस्तस्य भगवत्वेन युज्यते, आनंदांशाभिव्यक्तौ तु तत्र ब्रह्माण्ड कोटयः प्रतीयेरन् परिच्छेदो व्यापकत्वयं तस्य तदिति ।"
जीव को ब्रह्म मानने वाले प्रतिपक्षी कहते हैं कि यदि जीव ब्रह्म से बहुत नीचा है तो, उसको, ब्रह्म के समान सर्वोत्कृष्ट गुणों वाला कैसे कहा गया ? प्रामाणिक लोग कभी ऐसा कह नहीं सकते। ये कहें कि ब्रह्म के आनंदांश के प्रकट होने से जीव में वे महानतम गुण आते हैं, तो प्राज्ञ की तरह वे फिर तिरोहित भी हो जाते होंगे फिर उनके वर्णन करने का क्या महत्त्व है ? उसका उल्लेख ही व्यर्थ और अयुक्त है। ___ इसके उत्तर में सूत्रकार कहते हैं , यावदात्मभावित्वात्" अर्थात् मोक्ष के बाद आत्मा, नित्य और सदा आनंदांश प्रकट रहने से वैसे गुणों वाला रहता है, उसका स्वरूप माया से अनावृत रहता है इसलिए उसके ऐश्वर्य को उन महान तम गुणों से बतलाया गया है प्राज्ञ का आनंद तो प्रकट होता है जो कि सीमित है, किन्तु मुक्त जीव का आनंद निरन्तर प्रकट रहता है । इसलिए इसके विषय में लुप्त होने की सम्भावना भी नहीं है।
अत्यंत छोटे बड़े में बराबरी की भी नहीं जाती। आनन्दांश के प्रकट होने पर जब जीवात्मा, ब्रह्म हो जाता है तभी उसके ब्रह्म के समान गुणों का बखान किया जाता है, जैसे कि राजा के बड़े पुत्र को राजा हो जाने पर राजा के समान गुणों वाला कहा जाता है।
श्रुतियाँ जो ब्रह्म की व्यापकता बतलाती हैं, उससे जगत की भगवत्ता सिद्ध होती है, कोटि ब्रह्माण्डों में उसी की आनंदांशामिव्यक्ति है तभी वह व्यापक है। अंशांशी भाव से जगत की परमात्मा से सुस्पष्ट भिन्नता प्रतीत हो रही है, उसकी व्यापकता से अभिन्नता भी
पुंस्त्वादिवत्वस्य सतोऽभिव्यक्तियोगात् ॥२॥३॥३१॥
व्यपदेश दशायामपि आनंदांशस्य नात्यंन्तमसत्वम्, पुंस्त्वादिवत् । यथा पंस्त्वं सेकादिसामर्थ्य बाल्ये विद्यमानमेव यौवने प्रकाशते तथा आनंदांशस्यापि सत एव व्यक्तियोगः।