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मात्र पुरुषं निश्चकर्ष यमो बलादिति उत्क्रमे गत्यतिरिक्त स्वातंत्र्याभावात् । स्वात्मना जीव रूपेण चकारादिन्द्रियैश्च गत्यागत्योंः संबंधी जीवइत्यर्थः । अतो मध्यम परिमाणमयुक्तमित्यणुरेव भवति ।
उत्क्रांति गति और आगति के वर्णन में जीव के साथ इन्द्रियादि का चिपकाव दिखलाया गया है, इस पर संदेह होता है कि चिपकाव स्वाभाविक होता है या औपाधिक ? ब्रह्मोपनिषद् में तो उल्लेख मिलता है कि-"जैसे ऊर्णनाभि तन्तुओं का सृजन करती और समेटती है वैसे ही यह जाग्रत और स्वप्न में करता है, यह जीव अपने केवल स्वरूप से जाता और आता है इत्यादि "अनेन जीवेनात्मनाऽनुप्रविश्य" में ब्रह्म का जीव में प्रवेश बतलाया गया है तो क्या ब्रह्म भी जीव के साथ आता है ? अथवा उत्क्रांति गति आगति आदि में जीव संबंध को ही दिखलाया गया है, उसके अणुत्व का वर्णन नहीं है ? विचारने पर समझ में आता है कि--ज्ञ श्रुति और गति आगति श्रुति अणुत्व का ही प्रतिपादन कर रही हैं। ऐसा भी उल्लेख है कि—अंगुष्ठ मात्र पुरुष को यम बल पूर्वक खींचकर ले जाते हैं, इससे जीव की परतंत्रता निश्चित होजाती है। किन्तु "स्वात्मनाऽनुप्रविश्य' इत्यादि से और इन्द्रियों से संबंद्ध जीव की गति आगति के वर्णन से, जीव के स्वरूप का सही निर्णय हो जाता है, उसका अंगुष्ठपरिमाण मानना ठीक नहीं है, वह तो अणु रूप ही निश्चित होता है।
नाणुतच्छुतेरितिचेन्नेतराधिकारात् ॥२॥३॥२१॥ . जीवो नाणुर्भवितुमईति, कुतः ? अतच्छुतेः, अणुत्वविपरीतव्यापवकत्वश्रुतेः, "स वा एष महानज आत्मायोऽयं विज्ञानमय" इति चेन्न, इतिराधिकारात्, इतरः परब्रह्म तस्याधिकारे महानज इति वाक्यम् । प्रकरणेन शब्दाश्च नियम्यते अन्यपरा अपि योगेन ब्रह्म परा भविष्यन्ति ।
प्रतिपक्षी तर्क प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि-जीव अणु नहीं हो सकता, "स वा एष महानज" आदि श्रुति तो अणुत्व के विपरीत व्यापकत्व का विवेचन करती है । उनका ये तर्क भी असंगत है, ये व्यापकत्व को बतलाने वाली श्रुति तो परमात्मा संबंधी है, जिस प्रकरण की ये श्रुति हैं वो तो ब्रह्म संबंधी ही है। प्रकरणानुसार ही शब्द का नियमन किया जाता है, यदि शब्द अन्यपरक भी हो तो भी वह प्रकरणानुसार ब्रह्मपरक ही माना जायगा।
स्वशब्दोन्मानाभ्यां च ।२।३।२२॥