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देवदत्त का जन्म हुआ, विष्णु का जन्म हुआ, इत्यादि देहोत्पत्ति के आधार पर ही कहा जाता है जीव की पृथक् उत्पत्ति के आधार पर ऐसा कहना कठिन है । जीव तो अग्नि की चिनगारी की तरह परमात्मा का प्रस्फुरित अंश मात्र है, उत्पन्न होता है, ऐसा नहीं कह सकते । उनका न कोई नाम है न कोई रूप । इसके स्वरूप और गुणों का आगे उल्लेख करेंगे। "अयमात्माऽजरोऽमरः" न जायते म्रियेत इत्यादि श्रुतियों में जीवात्मा की नित्यता का स्पष्ट उल्लेख है।
गुणान्निरूपयन् प्रथयतश्चैतन्यगुणमाह
गुणों का निरूपण करते हुए सर्व प्रथय जीव के चैतन्य गुण को बतलाते हैं-- ज्ञोऽत एव ।२॥३॥१८॥ ज्ञश्चैतन्य स्वरूप, अतएव श्रुतिभ्यो विज्ञानमय इत्यादिभ्यः ।सर्वविप्लववादी ब्रह्म वाक्यान्युदाहृत्य सूत्रोक्तसिद्धांतमन्यथाकृत्य श्रुतिसूत्रोल्लंधनेनप्रगल्भते । स वक्तव्यः । किं जीवस्य ब्रह्मत्वं प्रतिपाद्यते जीवत्वं वा निराक्रियते इति, आद्ये इप्टापत्तिः, न हि विस्फुल्लिगोऽग्न्यंशो भूत्वा नाग्निः। द्वितीये स्वरूपनाशः। जीवत्वं कल्पितमिति चेन्न अनेन जीवनात्मनेति श्रुति विरोधात् विरोधात् । न चानादिरयं जीव ब्रह्मविभागो बुद्धि कृतः। प्रमाणभावात् । सदेव सोम्येदमन आसीदेक मेवाद्वितीयमिति श्रुति विरोधश्च । न च जीवातिरिक्त ब्रह्मनास्ति । सर्व श्रुतिनाश प्रसंगात् । यः सर्वज्ञः सर्वशक्तिः, अयमात्मा अपहतपाप्मा, अधिकं तु भेदनिर्देशादित्यादिबाधः । तस्मात् सदंशस्य तव्यपदेशवाक्य मात्र स्वीकृत्य शिष्ट परिग्रहार्थमाध्यमिक स्यैवायमपरावतारो नितरां सद्भिरुपेक्ष्यः ।
जीव ज्ञ अर्थात् चैतन्य स्वरूप है, इसीलिए श्रुतियों में विज्ञानमय आदि नामों से, इसका उल्लेख है। सर्वविप्लव वादी (शांकर) ब्रह्मवाक्य को उद्धृत कर सूत्रोक्त सिद्धान्त का भिन्न तात्पर्य बतला कर श्रुतिसूत्रों का उल्लंधन करके अपनी प्रगल्भता दिखलाते हैं। वे जीव के ब्रह्मत्व का प्रतिपादन करते हैं अथवा जीवत्वं का निराकरण करते हैं, ये समझ में नहीं आता। यदि ब्रह्मत्व का प्रतिपादन करते हैं तो इष्टत्ति होती है । अग्नि की अंश चिनगारियाँ, जो कि अग्नि से छिटक कर अलग हो गई है-उन्हें अग्नि कैसे कह सकते हैं। यदि जीवत्व का निराकरण करते हैं तो स्वरूपनाश मानते हैं । जीवत्व को कल्पित भी नहीं कह सकते, ऐसा मानने से "अनेन जीवेनात्मना" आदि श्रुति से विरुद्धता होगी । यह अनादि जीव ब्रह्म का विभाग काल्पनिक भी नहीं हो सकता,