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दीनाम भाव, प्रसंगादिति चेन्न । तद्व्यपदेशस्तस्य शरीरस्य जन्ममरण धर्मवत्वेन जीवव्यपदेशो भाक्तो लाक्षणिकः । कुतः ? तद्भावभावित्वात् । शरीरस्यान्वव्पव्यतिरेकाभ्यामेव जीवस्य तद् भाविस्वम् । देहधर्मो जीवस्य भाक्तः । तत्सम्बन्धेने वोत्पत्तिव्यपदेश इति सिद्धम् ।
विज्ञानमय जीव की उत्पत्ति न मानने से समस्त व्यावहारिक व्यवस्था का उच्छेद हो जाता है इसलिए तीन प्रकार की उत्पत्ति का निरूपण किया गया है, अनित्य जनन, नित्य परिच्छिन्न, और समागम इत्यादि जीव की समागत लक्षणा उत्पत्ति सम्बन्धी असंभावना का निराकरण तु शब्द से किया गया है। चराचर स्थावरजंगम शरीर में स्थावर जंगम का विशेष रूप से अपाश्रय होने से शरीर सम्बन्ध पर्यन्त आश्रय बतलाया गया है । वह देह सम्बन्ध, उत्क्रमण श्रुति के आधार पर कहा गया है, स्वतः कल्पित नहीं है। शरीर की उत्पत्ति में ही जीव की उत्पत्ति होती है । यदि जीवोत्पत्ति नहीं मानेंगे तो जातकर्म आदि संस्कार किसका होता है ? यह प्रश्न सामने आवेगा। इसलिए उत्पत्ति स्वीकारना होगा। शरीर का जन्ममरण होता है, जीव उसके आश्रित रहता है, इसलिए जीव के जन्ममरण की बात भी कही जाती है जो कि लाक्षणिक कथन मात्र है। शरीर की स्थिति में जीव की स्थिति तथा उसके अभाव में जीव का अभाव हो जाता है, इसलिए उसकी उत्पत्ति विनाश की चर्चा की जाती है जीव के देहधर्म की चर्चा भी कथन मात्र है, उसके सम्बन्ध से ही उत्पत्ति की बात कही गई है।
नात्माऽश्रुतेनित्यत्वाच्च ताभ्यः ॥२॥३॥१७॥ ___ ननु जीवोऽप्युत्पद्यतां, किमिति भाक्तत्वं कल्प्यत इति चेत् । न, आत्मानोत्पद्यते, कुतः ? अश्रु तेः, न हि आत्मन उत्पत्तिः श्रूयते । देवदत्तो जातो, विष्णुमित्रोजात इति देहोत्पत्तिरेव न तु तद्व्यतिरेकेण पृथग् जीवोत्पत्तिः श्रूयते । विस्फुल्लिगवदुच्चरणं नोत्पत्तिः । नामरूप संबंधा भावात् । एतस्य गुणाः स्वरूपं चावक्ष्यते । किंच, नित्यत्वाच्च ताभ्यः श्रतिभ्यः, अयमात्माऽजरी मरः, न जायते नियत इत्येव मादिभ्यः ।
यदि कहें कि जीव भी तो शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है, उसकी उत्पत्ति को कथन मात्र मानने का क्या तुक है ? सो कहना ठीक नहीं, जीवात्मा उत्पन्न नहीं होता, आत्मा की उत्पत्ति का श्रुति में स्पष्ट निषेध है