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--त्तिमुत्त्वा अन्नमयादयो निरूपिता। तत्रान्नमयस्य प्राणमयस्य च सामग्री पूर्वमुत्पन्नोक्ता । आनन्दमयस्तु परमात्मा मध्ये विज्ञान मनसी विद्यमाने क्वचिदुत्पन्ने इति वक्तव्ये।
तैत्तरीयक में आकाश से लेकर अन्न तक की उत्पत्ति बतला कर अन्नभय आदि का निरूपण किया गया है । उसमें अन्नमय और प्राणमय की सामग्री को पूर्व में ही उत्पन्न बतलाया गया । आनन्दमय परमात्मा का अन्तिम उल्लेख है, उसके मध्य में विज्ञानमय और मनोभय की उत्पत्ति कैसे होती है ? यह जानना है। इसका प्रसंग में उल्लेख होना चाहिए था।
तत्र क्रमेणोत्पन्ने इति वक्तव्यम् क्रमस्तु प्रातिलोभ्येन, सूत्रे विपर्ययानन्तरकथनात्, अन्तरेति च वचनात् । तेजोऽबन्नानामन्नमये गतत्वात् । वाय्बाकाशयोः प्राण एव गतत्वात् । आकाशात् पूर्वं विज्ञानमनसी उत्पन्ने इति वक्तव्यम् । तयोरग्रे वचनमेव लिंगमिति । अतस्तयोरुत्पत्तिवक्तव्येति चेन्न । अविशेषात् । नामरूपविशेषवतामेवोत्पत्तिरुच्यते, न त्वनयोः । विज्ञानमयस्य जीवत्वात् मनोमयस्य च वेदत्वात् अतो भूत भौतिक प्रवेशाभावान्न तमोरुत्पत्तिर्वक्तव्या।
इनकी उत्पत्ति का क्रम से उल्लेख होना चाहिए था। क्रम भी प्रतिलोभ होना चाहिए, क्योंकि सूत्र में विपर्ययानन्तर वर्णन किया गया है, "अन्तरात्ति च" शब्द यही बतलाता है। "तेजोऽबन्नानाम्" इत्यादि वचन अन्नभय से सम्बन्धित है। वायु और आकाश, प्राणगत तत्त्व मैं आकाश से पूर्व विज्ञान और मन उत्पन्न हुए यही कहना चाहिए। उन दोनों का पहिले ही नाम से उल्लेख है, इसलिए उनकी उत्पत्ति का उल्लेख होना चाहिए ये नहीं कह सकते । नामरूप की उत्पत्ति का विशेषोल्लेख है, इन दोनों का उल्लेख नहीं है। क्योंकि जीवविज्ञानमय है। मन्नमय, ज्ञानस्वरूप है, इसलिए भूत भौतिक में उनका प्रवेश नहीं है इस लिए उनकी उत्पत्ति नहीं कही गई।
चराचर व्यपाश्रयस्तुस्यात् तव्यपदेशोभाक्तस्तभावभावित्वात् ॥२॥३॥१६॥ _ ननु विज्ञानमयस्य जीवस्यानुत्पत्तौ सर्वव्यवहारोच्छेदः उत्पत्तिश्तु त्रिविधा निरूपिता । अनित्येजननं नित्ये परिच्छिन्ने समागम इति । तथा च जीवस्य समागम लक्षणाऽप्युत्पत्तिर्न स्यादिति इतीमामाशंका निराकरोति तु शब्दः । चराचरे स्थावरजंगमेशरीरे तयोः विशेषणापाश्रयः आश्रयःशरीर सम्बन्ध इति यावत् । सतुस्यात्, न तुस्वत् ननु शरीरस्योत्पत्तौ जीवोऽप्युत्पद्यते । अन्यथा जातकर्मा