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उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं कि अन्न शब्द से पृथिवी अर्थं ही करना चाहिए, क्योंकि उक्त प्रकरण में भूतों की सृष्टि की ही चर्चा है, भौतिक पदार्थों की नहीं नीलरूप भी पृथिवी का ही है, भूतों के साथ उसका शब्द से वर्णन किया गया है, "अद्भ्यः पृथिवी" यही छांदोग्य का उचित पाठ है । इसलिए अन्न शब्द 'पृथिवी ही ठीक है ।
तदभिध्यानादेवतु ताल्लिंगात् सः ।२।३।१३।
आकाशादेव कार्यात् वाय्वादि कार्योत्पत्तिं तु शब्दो वारयति । स एव परमात्मा वाय्वादीन् सृजति । कथं तच्छ-व्दवाच्येततिचेत्, तदभिध्यानात् । तस्यतस्य कार्यस्योत्पादनार्थं तदभिध्या न ततस्तदात्मकत्वं तेन तद्वाच्यमिति । ननु यथाश्रुतमेव कुतो न गृह्यत इत्यत आह-ताल्लिंगात्, सर्वकर्त्त त्वं लिंगं तस्यैव सर्वत्र वेदान्तेष्वगतम् जडतो देवता यावा यत् किंचिज्जामानं तत् सर्वं ब्राह्मण एवेति सिद्धम् ।
आकाश रूपी कार्य से वायु आदि कार्यों की उत्पत्ति तथा सूत्रस्थ तु शब्द से निषेध करते हैं । कहते हैं कि वह परमात्मा ही वायु आदि की सृष्टि करते हैं । यदि ऐसी बात है तो आकाश आदि शब्द परमात्म बाचक मानने होंगे, उनकी परमात्मा वाचकता कैसे सिद्ध होगी ? इस पर कहते हैं कि उन उन कार्यो को उत्पन्न करने के लिए परमात्मा तदात्म होते हैं, इसलिए वे शब्द परमात्मवाची हैं । आकाश आदि जो शब्द श्रुति में वर्णित है उनको ही मानने में क्या आपत्ति है ? इस पर कहते हैं कि समस्त सृष्टि की चर्चा परमात्मा के द्वारा ही समस्त वेदांत वाक्यों में की गई है, इसलिए उक्त धारणा बनती है। जड़ या देवता से कुछ भी सृष्टि होती है वह सब ब्रह्म से ही है यही निश्चित मत है ।
जो
विपर्ययेण क्रमोत उपपद्यते ||३|१४|
यथोत्पत्तिर्न तथा प्रलय:, किन्तु विपर्ययेण क्रमः । अत उत्पत्यनन्तरं प्रलयः । कुतः ? उपपद्यते, प्रवेश विपर्ययेणहि तिर्गमनम्। क्रमस्रष्टावेवैतत्
जिस क्रम से सृष्टि होती है, प्रलय उस क्रम से नहीं होता अपितु उससे विपरीत कम से होता है । उत्पत्ति के बाद प्रलय होता है । प्रवेश के विपरीत ही निर्गमन होता है, यही सृष्टि का क्रम है ।
अन्तराविज्ञानमनसोक्रमेण तल्लिंगादिति चेन्नाविशेषात् | २|३|१५|| तैत्तरीय के आकाशादि अन्नपर्यन्तमुत्प