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सत् की उत्पत्ति के विषय में शंका करते हुए कहते हैं कि ब्रह्म को आकाश की तरह सर्वगत और नित्य कहा गया है तो वह आकाश जैसे नष्ट होता है वैसे
वह भी नष्ट होता होगा और पुनः उत्पन्न होता होगा । इस शंका का निराकरण तु शब्द से करते हैं । कहते हैं कि सत् की उत्पत्ति नहीं होती, कुंडल की उत्पत्ति से स्वर्ण उत्पन्न हुआ, ऐसा नहीं कहा जाता, क्योंकि उसमें नाम रूप विशिष्टता का अभाव रहता है । उत्पत्ति मानने से भी वह उपपन्न नहीं हो सकता वह स्वतः तो उत्पन्न होगा नहीं, यदि किसी अन्य से उत्पन्न होता है तो उस जनक के जनक की कल्पना करनी पड़ेगी इस प्रकार निर्णय न होने से अनवस्था दोष घटित होगा । जो मूल है वही ब्रह्म है ।
तेजोऽतस्तथा ह्याह ॥२॥३॥१०॥
saवायुतः । तथा ह्याह - वायुरग्निरिति श्रुतेः । हि शब्देनैवमाह — छांदोग्य श्रुतिः प्रतिज्ञा हानि निराकरणार्थं तैत्तरीयकमपेक्षते वाय्वाकाशयोरुत्पत्त्यर्थम् । तथा चोप जीव्यस्य प्राधान्याद् वायुभावापन्नमेव सत् तेजस उत्पादक मिति स्वीकरोति । ब्रह्मण एव सर्वोत्पत्ति पक्षस्त्वविरुद्धः ।
" वायुरग्निः " इस श्रुति से ज्ञात होता है कि तेज वायु से उत्पन्न होता है । छांदोग्य श्रुति, प्रतिज्ञा हानि के निराकरण करने के लिए उक्त तैत्तरीयक श्रुति की अपेक्षा करतो है । वायु और आकाश की उत्पत्ति के लिए ही उसे उसकी अपेक्षा होती है । उपजीव्य परमात्मा की प्रधानता से ही ये बात बन सकती है वह सत् ही वायुभावापन्न होकर तेज का उत्पादक है, ऐसी छांदोग्य की मान्यता है । यह पक्ष ब्रह्म से ही सारी उत्पत्ति है ऐसा मानने पर संगत हो सकता है ।
आपः | २|३|११|
तथा ह्याहेत्येव । इदमेकमनुवाद सूत्रमविरोध ख्यापकम् । न श्रुत्यों:, सर्वत्र विरोधे इति ।
जल तेज से हुआ । इसकी उत्पत्ति के विषय में दोनों श्रुतियाँ अविरुद्ध हैं, बाकी सब में कोई न कोई वैमत्य है ।
पृथिव्याधिकार रूपशब्दान्तरेभ्यः ।२।३।१२।।
"ताआप ऐक्षन्त बह्वयः स्याम् प्रजायेमहि" इति "ता अन्नमसृजन्त” तत्र अन्न शब्देन ब्रीह्यदर्य:, अहोस्वित् पृथिवी इति ? संदेहः । ननु कथं संदेह: पूर्वन्यायेन उपजीव्य श्रुतेर्बलीयस्त्वादिति चेत् । उच्यते "अद्भ्यः पृथिवी पृथिव्या